हिंडोर के कीर्तन


(१ ) राग मल्हार :-



झूलों तो सुरत हिंडोरे झुलाऊं ।



मरुवे मयार करो हित चित के तन मन खंभ बनाऊं ।



सुधि पटली बुद्धि डांडी बेलन नेह बिछौना बिछाऊं।



अति ओसेर धरों रुचि कलसा प्रीति ध्वजा फहराऊं।



गरजन कुहुक किलक मिलवे को प्रेम नीर बरखाऊं।



श्री विट्ठल गिरिधरन झुलाऊं जो इकले कर पाऊं॥



अर्थ — हे प्रभु! आप झूलना चाहो तो स्मृति (यादों) के हिंडोरे में झूला झुलाऊं। मरुवे और मयार प्रीति प्यार के तथा तन और मन के खंभे बनाऊं । स्मरण की पटली और बुद्धि की डांडी- बेलन बनाऊं, प्रेम का बिछौना बिछाऊं, रुचि रूपी हिलोरों के कलश और ध्वज फहराऊं, गर्जना, कुहक किलकारियाँ भरना आदि मिलने के लिए सब करूँ और प्रेम अश्रु- नीर बहाऊँ । श्री विट्ठलनाथ जी अपने प्रभु को यदि अकेले प्राप्त कर सकूँ तो सुरत के हिंडोले में झुलाऊं ॥



 



(२)  राग मल्हार :-



हिंडोरे माई झूलन के दिन आये । 



गरजत गगन दामिनि कोंधत राग मल्हार जमाये।



कंचन खंभ सुढार बनाये बिच-बिच हीरा लायें।



डांडी चार सुदेस बिराजत चौकी हेम जराये।



नाना विध के कुसुम मनोहर नूतन झूमक छाये।



मधुर मधुर ध्वनि बेनु बजावत दादुर मोर जिवाये।



रमकन झमक बनी पिय प्यारी किंकिनी शब्द सुहाये।



चतुर्भुज प्रभु गिरिधरनलाल संग मानिनी मंगल गाये।



अर्थ— हे सखी! झूला झूलने के दिन आ गए। मेघ गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है, इससे मल्हार राग और जम रहा है । सोने के खंभे सुढार बने हैं , बीच बीच में हीरे जड़े हैं, चार दण्डियां और चौकी स्वर्ण जड़ित है । नवीन नाना विध के फूलों के गुच्छे लटक कर मन मोह रहे हैं । मधुर ध्वनि में प्रभु मुरली बजा रहे हैं जिससे दादुर मोर आनन्दित हो रहे हैं । प्रिय और प्यारी की रमक- झमक और करधनी की झनक सुहानी लग रही है । श्री चतुर्भुज दास जी कहते हैं कि श्री गिरधर लाल के साथ श्री राधा जी मंगल गीत गा रही हैं ॥



 



(३)  राग मल्हार :-



सुरंग हिंडोरना माई झूलत श्री गोकुल चन्द।



द्वे खंभ कंचन के मनोहर रत्न जटित सुरंग।



जाकी चार डांडी सरल सुंदर मुरख लज्जित अनंग।



पटुली पिरोजा लाल लटकन झूमका बहुरंग।



मरुवे तो मानिक चुनी लागी बिच-बिच हीरा तरंग।



कल्प-द्रुम तरु छांह शीतल त्रिविध मंद समीर।



तहां लता लटके भार कुसुमन परस यमुना नीर।



हंस मोर चकोर चातक कोकिला अलि कीर।



नव नेह नवल किसोर राधे नवरंग गिरिधर धीर।



ललिता विसाखा देत झोटा रीझ अंग न समात।



जहां लाडिली सुकुमार डरपत श्याम उर लपटात।



गौर सामल अंग मिले दोऊ भये एकही भांत।



नील पीत दुकूल राजत दामिनी दुरि जात।



नव कुंज - कुंज झुलाय झुलावत सहचरी चहुँओर।



मानो कुमुदिनी कमल फूल निरख जुगल किसोर।



व्रजवधु तृन तोर डारें देत प्रान अकोर।



कृष्णदास को व्रजवास दीजे नागर नंदकिसोर ॥



अर्थ— हे सखी ! श्री गोकुल चन्द्र श्री कृष्ण सुंदर हिंडोलों में झूल रहे हैं। सुवर्ण के दो मनोहर खंभे रत्नों से जड़े और सुंदर रंग से सजे हैं । जिनकी चार सीधी डंडियों को देख कर कामदेव लज्जित हैं। फिरोजी रंग की पटली और हिंडोरे में झुमके और रंगीन लटकनें बंधी हैं । मरुवों में माणिक हीरे बीच बीच में जड़ाये हैं। वहाँ पर कल्पवृक्ष की शीतल छाया है और मन्द, सुगंधित शीतल पवन बह रही है । फूलों के गुच्छे लटक कर यमुना जल का स्पर्श कर रहे हैं, हंस मोर, चकोर, चातक,कोकिल, भौंरे और तोते सभी उपस्थित हैं। नये प्रेम से युक्त श्री कृष्ण और नवेली श्रीराधाजी को श्री ललिता श्री विसाखा आदि सखियाँ झोंटा दे रही हैं, रीझकर फूली नहीं समाती। श्रीराधाजी डर कर श्री श्याम के हृदय से लिपट जाती हैं, श्री श्याम और गौर रंग मिलकर एक हो गए हैं । नीले पाले शोभित वस्त्रों को देख दामिनी दूर भाग जाती है । सखियाँ नवकुंज में चारों ओर खड़ी झुला रही हैं मानो कुमुदनी कमल फूल को निहार रही हो। ब्रजवधुएं तिनके तोड़ कर प्रभु पर डाल रहीं हैं, प्राण न्योछावर कर रहीं हैं । श्री कृष्णदास जी कहते हैं कि हे चतुर श्री कृष्ण मुझे ब्रजवास का सौभाग्य प्रदान करें ॥



 



(४) राग श्री :-



हिंडोरे झूलत स्यामा स्याम।



ब्रज-जुवती-मंडली चहूंधा निरखत बिथकित काम।



कोउ गावति, कोउ हरषि झुलावत, सब पुरवतिं मन साध।



कोउ संग मचति, कहति कोउ मचिहों उपज्यौ रूप अगाध।



कोउ डरपति, हा - हा करि बिनवति प्यारी अंकम लाई।



गाढैं गहति पियहिं अपनैं भुज, पुलकत अंग डराई।



अब जनि मचौ पाइं लागति हौं, मोकौं देहु उतारि।



यह सुन हंसत मचत अति गिरिधर, डरत देख अति नारि।



हिंडोरा के कीर्तन- (नित्यपद)  प्यारी टेर कहति ललिता सौं , मेरी सौं गहि राखि।



सूर हँसति ललिता चंद्रावलि, कहा कहति प्रिय भाखि॥



अर्थ— श्री राधा जी और श्री कृष्ण हिंडोरा झूल रहे हैं । ब्रज युवतियों की मण्डली अलौकिक काम से शिथिल हुई चारों ओर देख रही है । कोई गाती है कोई प्रसन्न होकर झुलाती है, सभी अपने-अपने मन की कामना पूरी कर रही हैं । कोई साथ में लटक जाती है तो दूसरी कहती है मैं लटकूँगी, गहरा सौंदर्य बिखर रहा है । कोई डर कर हा-हा कर रहीं हैं । प्यारी को गोद में भर विनती करती है । प्यारी प्रभु को और दृढ़ता से पकड़ लेती हैं और कहतीं हैं अब मत झुलाओ तुम्हारे पाँव छूती हूँ, मुझे उतार दो। श्री गिरिधर प्रभु जी देखकर हंस देते हैं और प्रिया को उतरती देख और झुलाते हैं। प्यारी अपनी सखी श्री ललिता जी से कहती हैं- तेरी सौगन्ध झूले को पकड़ के रख । श्री ललिता जी और श्री चंद्रावली जी हँसते हुए पूछतीं हैं कि क्या कह रही हैं? 



 



(५) राग यमन :- 



झूलन आई रंग हिंडोरै। 



पँचरँग-बरन कुसुंभी सारी कंचुकि साँधै बोरै।



मुकुता-माल ग्रीव लर छूटी, छबि की उठति झकोरैं। 



'सूरदास' प्रभु मन हरि लीन्हौ, चपल नैन की कोरैं।



अर्थ— . श्री स्वामिनी जी आनन्द में हिंडोरे झूलने आई हैं। फूलों से बनी पाँच रंगों की साड़ी और कंचुकी भी उसी रंग में रंगी है। गले में मोतियों की माला की लट की छवि की शोभा से मन झकझोर उठता है। चंचल नेत्रों की छवि श्रीसूरदास जी के प्रभु का मन हर लेती है।



 



(६) राग बिहागरौ :- 



ललना झूलै हिडोरै सोभा तनु गौरें। 



नील पीत पट घन दामिनी कौ भोरै।



सोभा सिंधु मन बोरै गोपी चहुँ ओरें।



नैननि नैन जो झूलै थोरै-थोरै। 



पवन गवन आवे सौंधे की झकोरें।



तन मन वारैं या छबि पर तृन तोरेँ। 



'सूर' प्रभु चित चोरै नैकु ॲग मोरेँ। 



सुनि मुरली घोरै सुर बधु सीस ढोरै।



 



अर्थ — श्री राधा जी हिंडोले में झूल रही हैं, गोरे शरीर पर शोभा छाई है। प्रभु के पीताम्बर और प्यारी के नीले वस्त्र मिलकर ऐसे लगते हैं जैसे बादल में बिजली चमक रही हो। शोभा सागर ने चारों ओर गोपियों के मन मुग्ध कर लिए हैं। थोड़ा-थोड़ा झूलती हुई नयनों से नैन मिला रही हैं। सुगन्धित वायु के झोंके आ रहे हैं। प्रभु की इस छवि पर तन मन न्योछावर कर तृण तोड़ रही हैं। श्री सूरदास जी के प्रभु जरा सी अंगड़ाई लेते ही चित्त को चुरा लेते हैं, उनकी मुरली की ध्वनि सुन कर देव वधुएँ शीश झुका लेती हैं।



 



(७) राग बिहागरौ :- 



गुपाल लाल झूलत सुरंग हिंडोरे। 



कंचन खंभ सुढार बनाये डांडी लाल चहुँओरे।



आस पास सब ब्रजजन ठाढ़ी गरज घटा घन घोरे।



'ब्रजपति' श्री गिरिधरलाल छबि निरखि निरखि तृन तोरें।



 



अर्थ — गोपाल लाल सुन्दर रंग के हिंडोरे में झूल रहे हैं। कंचन के सुढाल खंभे हैं जिनके चारों ओर लाल डण्डी हैं। आसपास सभी ब्रज युवतियाँ खड़ी हैं, बादल जोर से गरज रहे हैं। श्री ब्रजपति जी कहते हैं कि गिरधर की छवि देखकर मैं तिनके तोड़कर डाल रहा हूँ।



 



(८) राग मल्हार :- 



झूलत लाल गोवर्धन धारी। 



बलबल जाय मुखारबिंद की संग लिये पिय प्यारी।



मनिमय जटित हिंडोरो बन्यो है झुलवत सखी हितकारी। 



ललना लाल दोऊ राजत हैं घनदामिनी छबि भारी।



सीतल मंद सुगंध बहत है कुंज घटा छबि न्यारी। 



दादुर मोर पपैया बोलत श्रवन सुनत सुखकारी।



सोभा अद्भुत जात न वरनी कोटि काम मनहारी। 



श्री वल्लभ पद पंकज की 'कृष्णदास' बलिहारी॥



 



अर्थ— श्री गिरधर लाल झूला झूल रहे हैं। सखी, प्रिय-प्यारी को संग लिए देखकर बलिहारी हो रही है। रत्न जटित हिंडोरा है, सखी अच्छी तरह झुला रही हैं। प्रिय और प्यारी दोनों बादल और बिजली की भाँति सुशोभित हैं। शीतल, मंद, सुगन्धित वायु बह रही है और कुंज की ध्वनि निराली हो रही है। दादुर, मोर, पपीहे बोल रहे हैं जो सुनने में अति सुखदायक लग रहा है। इस अद्भुत शोभा का वर्णन करते नहीं बनता। करोड़ों कामदेवों का मन हर लिया है। श्री कृष्णदास जी श्री वल्लभ के चरण कमल पर बलिहारी हो रहे हैं।



 



(९) राग मल्हार :- 



नटवर झूलत सुरंग हिंडोरें। 



धरत चरन पटुली पर मोहन अरसपरस कर जोरे।



पीत वसन बनमाल बिराजत सारी सुरंगहि बोरे। 



सजल श्यामघन कनिक वरन तन माननी मान हिलोरे।



जोरी अविचल सदा विराजतकुंडल वहि झकोरे।



 'कुंभनदास प्रभु गिरधर राधा प्रीत निवाहत ओरे॥



 



अर्थ— प्रभु सुन्दर हिंडोरे झूल रहे हैं। आपस में हाथ से हाथ पकड़ कर हिंडोरे की पटुली पर प्रभु ने चरण रखे। पीताम्बर धारण किया है। पुष्प माला शोभित हो रही है। सुन्दर रंगों वाली साड़ी श्रीस्वामिनीजी ने पहन रखी है। झूले के झकोरों से दोनों कुण्डल चमक रहे हैं। यह जोड़ी हमेशा विराजे। श्री कुंभनदास जी के स्वामी ने श्रीस्वामिनी जी से प्रेम का निर्वाह किया।



 



(१०) राग मल्हार :- 



झूलें माई युगल किशोर हिंडोरें। 



अति आनन्द भरे रस गावत लेत प्रिया चित चोरें।



कंचन मनिके खंभ बनाये मोतिन झूमक लोरें। 



मन्द-मन्द बून्दें अति बरखत श्याम घटा घन घोरें।



पीत वसन दामिनी छबि लज्जित बोलन लागे मोरें। 



'कुंभनदास प्रभु गोवर्धन धर चितवत राधाजूकी ओरें॥



 



अर्थ— हे सखी ! प्रिया-प्रियतम दोनों ही झूल रहे हैं। अत्यन्त आनन्द रस में गाते हुए प्रभु श्री स्वामिनी जी का चित्त चुरा रहे हैं। सोने के खंभों में मणियाँ जड़ी हैं। हिंडोरे में मोतियों के झूमके लगाये हैं। बादलों की गर्जना हो रही है। धीरे-धीरे वर्षा हो रही है। प्रभु के पीताम्बरी वस्त्रों के सामने बिजली भी लजा रही है। मोरों की मधुर ध्वनि हो रही है। श्री गिरिराज जी को धारण करने वाले श्री कुंभनदास जी के स्वामी राधा जी को निहार रहे हैं।



 



(११) राग मल्हारः- 



हिंडोरें राजत रंग रंगीलो । 



ता ऊपर झूलत ब्रजभामिनी श्रीनंदलाल छबीलो।



शीश मुकुट ओढ़े पियरो पट पिय त्रिय अंबर झीनो। 



गावत मल्हार मुदित मन अधिक मधुर स्वर लीनो।



गरजे घनसे चपला चातक टेरत प्रेम हटीलो। 



'श्री विट्ठल' गिरिधारी कृपा निधि रसिकराय रसीलो॥



अर्थ— रंग-रंगीला हिंडोरा सुशोभित है। उसके ऊपर श्री राधा जी और छबीले श्री नन्दलाल जी झूल रहे हैं। शीश पर मुकुट है, पीताम्बर ओढ़ रखा है, प्रिया ने भी झीना वस्त्र पहन रखा है। प्रसन्नता पूर्वक अत्यन्त मधुर स्वर में मल्हार राग गा रहे हैं। बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है और हठी चातक बोल रहा है कि श्री विट्ठल के श्रीगिरिधारी कृपा निधान बड़े रसीले हैं।



 



(१२) राग मल्हार :- 



हिंडोरे माई झूलत गिरिधर लाल। 



संग राजत वृषभाननंदिनी अंग-अंग रूप रसाल ।



मोर मुकुट मकराकृत कुंडल और मुक्ता वनमाल। 



रमक-रमक झूलत पियप्यारी सुख बरखत तिहिकाल।



हँसत परस्पर इत उत चितवत चंचल नयन विशाल।



 'नंददास' प्रभु की छवि निरखत विवस भई व्रजबाल ॥



अर्थ— हे सखी ! श्री गिरिराज जी को धारण करने वाले प्रभु हिंडोरे झूल रहे हैं। श्री स्वामिनी जी के अंगों से रूप झलक रहा है। आनन्द का खजाना ही हो रहा है। ऐसी श्री राधा जी के साथ प्रभु शोभा दे रहे हैं। प्रभु ने मोर पंखों का मुकुट धारण किया है। मकर की आकृति के कानों में कुण्डल धारण किये हैं। पुष्पों एवं मोतियों की माला धारण की है। प्रिया-प्रियतमं मंद-मंद झूलकर सुख दे रहे हैं। बड़े-बड़े नेत्रों से कृपा कटाक्ष जीवों पर कर रहे हैं। दोनों ही स्वरुप मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। श्री नंददास जी के स्वामी की शोभा को देखकर ब्रजांगनाएँ आश्चर्य विभोर हो रही हैं।



 



(१३) राग मल्हार :-



झूलत लाहिलो नवल बिहारी।



शीश सेहरो अति छबि राजत उपरेना जरतारी।



मुक्ता माल उर पर सखीरी लागत परम सुहाई। 



मानो सुरसरि स्वर्ग लोकतें चलि धरनी पर आई।



सब सिंगार अद्भुत सोभित उर उपमा बरनी न जाई। 



‘सूर’ प्रभु के रोम-रोम पर बार-बार बलि जाई॥



अर्थ— रंगीन स्वभाव के प्रभु झूल रहे है, जरतारी का उपरना एवं माथे पर सेहरा धारण किया है। हे सखी! मोतियों की माला ह्रदय पर शोभित हो रही है । जो अत्यन्त सुख दे रही है। जैसे देवलोक से देवनदी ही धरती पर अमृत बिखेरने आई हो। सभी प्रकार के श्रृंगार प्रभु की शोभा अत्यन्त विशेष रूप से बढ़ा रहे हैं। बखान नहीं किया जा रहा है। श्री सूरदास जी अपने स्वामी की ऐसी दिव्य छवि पर बलिहारी हो रहे है।



 



(१४)  राग मल्हार :- 



दूल्हे दुलहनि सुरंग हिंडोरें झूले प्रथम समागम अहो गठजोरें। 



चरन खंभ भुज करि मयार डांडी चारू कमल करू रमकि हुलसे दोउ ओरे। 



सुभग सेज पटुली सुख बाड्यो, मरूवा बेलन प्राची और।



'नंददास प्रभु रस बरसत जहां नवघन दामिनी की अनुहोरे॥



अर्थ— अहो दूल्हा-दूल्हन कृष्ण राधिका जी प्रथम समागम पर गांठ जोड़े झूला झूल रहे हैं। चरणों के खम्भे हैं, भुजाओं के मयार और सुन्दर डांडी बनाकर दोनों उल्लास पूर्वक क्रीड़ा कर रहे हैं। सुन्दर सेज की पटली पर सुख बढ रहा है। श्री नन्ददास जी कह रहे हैं कि श्री राधिका जी श्री कृष्ण का सामीप्य ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो बादल बरस रहे हों और बिजली चमक रही हो।



 



(१५) राग मल्हार :-



हिंडोरे झूलत हैं री दूल्हा दुल्हन संग। 



सीस सेहरो सुभग सीमा ललित लहेरिया रंग।



गावत गर्व भरां गुन ग्वालन नई-नई उपजत तान तरंग। 



‘कुंभनदास' लाल गिरधर पर वारों कोटि अनंग॥



अर्थ— श्री ठाकुर जी व श्री राधिका जी हिंडोरे पर संग झूल रहे हैं। श्री ठाकुर जी के सिर पर सेहरा सुशोभित है। श्रीराधिका जी के लहरिया सुशोभित है। ग्वाल जन नवीन तान के साथ श्री राधा जी श्री कृष्ण गुणगान कर रहे है। श्री कुभनदास जी कह रहे है कि इस शोभा पर करोड़ों कामदेव भी न्योछावर हैं ॥



 



(१६) राग मल्हार :- 



हिंडोरे झूलें गिरिवरधारी।



लाल टिपारो शीश बिराजत मल्लकाछ छबि भारी।



वाम भाग सोहत श्री राधा पहिरे कसुंभी सारी।



झोटा देत सखी ललितादिक पवन बहत सुख कारी।



बाजत ताल मृदंग झालरी गावत सब सुकुमारी।



 'कुंभनदास’ प्रभु की छबि ऊपर सर्वस डारत वारी॥



अर्थ— श्री कृष्ण प्रभु हिंडोरा झूल रहे है। सिर पर लाल टिपारा सुशोभित है और मल्ल काछनी काछ रखी है। बाएँ भाग में कुसुंभी साड़ी में श्री राधा जी शोभा पा रही है। श्री ललिता आदि सखियाँ झोटे दे रही है, सुखदायक पवन बह रही है। ताल के साथ झाँझ मृदंग बज रहे हैं और सभी सुन्दरियाँ गीत गा रही है। श्री कुंभनदास जी प्रभु की छवि पर सर्वस्व न्योछावर कर रहे हैं।



 



(१७) राग रायसो -



झूलत कुंवर गोपराय की सुंदर सब सुकुमार।



मध्य घनश्याम छबि सोहहीं स्यामा परम उदार।



चीर गुलाबी राधिका, उर बैजयंती माल। 



बरन गुलाब छवि बनी झूलत संग गोपाल।



सारी लहँगा कंचुकी सबही गुलाबी बनाये। 



साज गुलाबी रस भयो चंद्रावलि सजाये।



ललिता विसाखा चंद्रभागा मध्य यमुना के कूल ।



 'परमानन्द' प्रभु श्रीपति रच्यो हिंडोलो अमूल॥



अर्थ— श्री यमुना जी के तट पर अनोखा झूला झूल रहे हैं। सुन्दर गोपीजनों के मध्य श्री ठाकुर जी सुशोभित हो रहे हैं। गुलाबी रंग का सम्पूर्ण परिवेश हो गया है। श्री राधिका जी की साड़ी, लहंगा, कंचुकी सभी गुलाबी रंग से सजे हुए है। सारा वातावरण गुलाबी है। श्री ललिता जी, श्री विशाखा, श्री चन्द्रभागा जी आदि सखियाँ श्री ठाकुर को झूला झुला रही है।



 



(१८) राग काफी :- 



सघन कुंज की छांह हिंडोरो साजही ।



तहां झूलत प्रीतम दोऊ सो व्रजवधू गाजही।



पुष्पलता द्रुमडोर बहु कुल राजही ।



व्रजचंद्र श्रीराधा नार लता मध्य झूलही ।



प्रेम सुधारस पूरसों झोटा देत ही। 



निरख 'गदाघर' जाय चरन के मूल ही ॥



अर्थ— सघन कुजों के मध्य झूला सुशोभित है। वहाँ राधा-कृष्ण दोनों झूल रहे हैं, ब्रज वधुएँ गा रही हैं। पुष्प लताएँ और अनेक प्रकार के वृक्ष समूह सुशोभित हैं। श्री ठाकुर और राधिका जी लता मध्य झूल रहे हैं। प्रेम सुधा रस से पूरित होकर झोटा दें रहे हैं। गदाधर दृश्य देखकर प्रभु चरणों में नतमस्तक हो रहे हैं ।



 



(१९) राग पीलू :- 



प्यारी को हिडोरना हो रोप्यो कदंब की डारी। 



रेसम डोर पटली पर राजे झूलत स्याम विहारी।



चहुंदिस सखी झुलावत ठाढ़ो तन मन धन बलहारी। 



राधे जू झूलत स्याम झुलावे गावत गीत सोहाय।



मधुर-मधुर घन गरजत तैसे मुरली बजाय। 



वृंदावन की शोभा निरखत गावत गुनी जन गीत।



श्रीविठ्ठल' प्रभु यह छवि निरखत दोउनकी रस रीत॥



अर्थ— प्यारी श्री राधा का हिंडोरा कदम्ब की डाल पर स्थापित किया है। पटली पर रेशम की डोरी है, उस पर श्री श्याम झूल रहे हैं। चारों ओर सखियाँ झुलाते हुए तन, मन,धन न्योछावर कर रही हैं। श्री राधाजी को श्याम झुला रहे है और सुन्दर गीत गा रहे है। मधुर-मधुर बादल गरज रहे हैं, मुरली भी मधुर ध्वनि में बज रही है। वृंदावन की यह शोमा देखकर गुणीजन गीत गाते हैं, श्री विठ्ठल प्रभु की यह छवि निहारते हुए दोनों के गीतों का रस ले रहे है॥



(२०) राग मल्हार - 



हिंडोरना मोको गढि दे वीर बढैया। अगर चंदन के खंभ मनोहर चौकी हेम जरैया।ऐसो घर तामें दोऊ जन झूलें राधा कुंवर कन्हैया।अबही गढ़ाई मैं तोकों देहों मोतिन झाल भरैया।जैसो कहो तैसो गढ़ि लाऊ चित्र विचित्र बनैया। 'सूरदास' प्रभु मोहन रीझे यह विध बोहोत झुलैया॥



अर्थ— हे बढ़ई भैया! तुम मेरे लिए झूला बना दो। अगर, चंदन के सुन्दर खंभे स्वर्ण रचित चौकी हो और उसमें इतना स्थान हो कि राधा कृष्ण दोनों झूलने का आनन्द प्राप्त करें। हे बढ़ई ! ऐसे झूले की बनवाई में तुझे टोकरी भरकर मोती देंऊगी। जैसा तुम कहते हो वैसा ही विचित्र हिंडोला बना लाता हूँ,जिस प्रकार के झूले हिंडोले से श्री ठाकुर रीझें वैसा प्रयास करूँगा ॥