मंगला कीर्तन


१)
जागिये गोपाल लाल देखों हों मुख तेरो,पाछे गृहकाज करों हों नित्य नेम मेरो।अरुण दिशा विगत निशा उदय भये भानु,कमलन तें भ्रमर उड़े जागिये भगवान।बंदीजन द्वार ठाड़े करत यश उच्चार,सरस वेद गावत हैं लीला अवतार।परमानंद स्वामी गोपाल परम मंगल रूप,वेदपुराण गावत हैं लीला अनूप।अर्थ -- हे गोपाल आप जागिये। मैं आपके श्रीमुख का दर्शन करके ही बाद में गृहकार्य करती हूं, यह मेरा नित्यनियम है। रात बीतजाने पर दिशायें अरुण हो गई हैं।और प्रातःकालीन सूर्य का उदय हुआ है।कमल पुष्पों से भँवरे उडने लगे हैं।आपके सेवकगण द्वारपर खडे़ होकर आपके यश का गान कर रहे हैं।और वेद भी आपके सुंदर अवतारों की लीला का गान करते हैं। परमानंददासजी कहते हैं कि मेरे स्वमी गोपाल परम मंगल रूप हैं वेद पुराण भी प्रभु की इसी अनुपम लीला का गान करते हैं।

२)
भैरव :-- जागिये गोपाललाल,जननी बल जाई।
उठो! तात भयो प्रात, रजनीको तिमिर घटयो, आये सब ग्वालबाल , मोहना कन्हाई। उठो! मेरे आनंदकंद चंदकिरण मंद भई, प्रकट्यो आकाश भानु कमलन सुखदाई।
संगी सब चरत धेनु, तुम बिन ना बजी बेनु ,उठो! लाल तजो सेज सुंदरवर राई।
मुख तें पट दूर कियों, यशोदा को दरस दियो, दधि माखन माँग लियो, विविध रस मिठाई । जेंमत दोउ राम श्याम, सकल मंगल गुणनिधान, थार में कछु जूठन रही,' परमानंद ' पाई। ।।

अर्थ:---
.मैया बलिहारी हो रही है । है लल्ला जागो! हे लाल उठो। सुबह हो गयी है । रात्रि का अंधकार घट गया है, ग्वाल सखा आ गये हैं । हे कन्हैया! आनंद को देनेवाले उठो ! चंद्रमा का प्रकाश मंद हो गया है । कमलों को सुख देनेवाला, आकाश में सूर्य उदय हो गया है। सभी साथी गाय चराने चले गए हैं। तुम्हारे बिना वेणु नहीं बज रही है। हे लाल उठो ! लाला ने शयया छोड दी है । मुंह से ओढने का वस्त्र दूर किया है। मैया यशोदा को दर्शन दिया है । दही- मकखन मांग लिया है । अनेक प्रकार के रस मीठाई व्यजन माँगे है। बलराम और कन्हैया दोंनो भाई जो गुणो के धाम है , जीम रहे हैं । परमानन्द ने भी थाल में जो कुछ प्रसादी (झूठन) बच रही थी, उसे पा लिया है।

३)
जगायवे-- रामकाली :- प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उधारत नंद । रहि न सके अतिसय अकुलाने, बिरह निसा कै द्वंद। स्वच्छ सेज में ते मुख निकसत ,गयौ तिमिर मिटि मंद।
मेनहुं पयो - निधि मथत फेन फटी, दियौ दिखाई चंद । धाए चतुर चकोर 'सूर' सुनि, सब सखि- सखा सुछंद । रही न सुधि सरीर अधीर मन ,पीवत किरन मकरंद ।।

कीर्तन के अर्थ:

नन्द बाबा ने प्रात:काल उठकर सोते हुए अपने पुत्र का मुख उघाड दिया । रात्रि के विरह दु:ख से व्याकुल होने के कारण उन से रहा नहीं गया । जैसे स्वच्छ शयया पर प्रभु का मुख्य झलका, धीमा अन्धेरा भी मिट गया, मानो क्षीर सागर को देवताओ द्वारा मथने से झग फेटकर चन्द्रमा निकल आया हो। अब जैसे ही सुना कि प्रभु के मुख- चन्द्र का उदय हो गया, वैसे ही तत्काल सभी सखा- सहेली चकोर पक्षियों की भाँति उनका गुणगान करते दर्शन हेतु दौड़ पडे। किसी को भी अपने शरीर और मन की सुधि नहीं रही, सब चन्द्र किरणों का रस पीने लगे।