आनंद और सहजता" पाने के रास्ते॥-१


हम आम ज़िंदगी में रोज़ कई बार ये बातें कहेते-सुनते है... कि.. माँ-बाप भगवान के समान होते हैं,बच्चे भगवान का रूप होते हैं, ग़लत कार्य करने से पहले भगवान से डरो, चिंता ना करो, भगवान ज़रूर अच्छा हीं करेंगे, भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है, भगवान सब जानते है, और न जाने एेसी कितनी बातों में हम भगवान का नाम और काम के बारे में सुनते रहते हैं।पर क्या सच में हम भगवान को और भगवान के स्वरूप को जानते हैं?.. शायद नहीं। क्योंकि अगर जानते होते तो हमें हमारा स्वरूप भी समझ आ ही गया होता। और हम हमारा वजूद , उसकी महत्ता और मानव जीवन का लक्ष्य भी समझते।हिंदू धर्म भगवान को तीन रूप में देखता है।सृष्टि के रचयिता-ब्रह्मा, पालनकर्ता-विष्णु और विनाशकर्ता-शिव।इस बात का ज्ञान सामान्यत: सब को होता है।परंतु लोगों को धर्म शास्त्र के अध्ययन की कमी और वक़्त पर हमारे धर्म प्रचारक द्वारा सही ज्ञान और मार्गदर्शन ना मिलने के कारण सब अज्ञात है। इस ज्ञान से कि ये तीनो रूप एक ही परमात्मा के है। और ये तीनो रूपों के कार्यों में सहायक जो है, उनको देवी-देवता कहते हैं।एसे में कोई दूसरे धर्म का या हमारे नयी पीढ़ी का कोई व्यक्ति हमें ये पूछे कि हमारे इतने सारे भगवान क्यों हैं? तो अधिकतर लोग इस बात का जवाब नहीं दें पाते है।जब तक हमें हमारे पिता (भगवान) के अस्तित्व का ही पता ना हों, तब तक हमारे वजूद की क्या क़ीमत?कोई भिखारी जो रोज़ सड़क पर भीख माँगता है, उसको अचानक पता चले कि वो भिखारी का बेटा नहीं परंतु कोई राजा का बेटा है, तो क्या होंगा? उसकी दृष्टि, प्रवृति-वृति सब बदल जाएगी। और उसको अपने वजूद की क़ीमत समझ आएगी।एसे ही हम हमारे अंशी को पहचान ले कि वो कौन है? उनका स्वरूप क्या है? तो हम हमारे स्वरूप को जान पाएँगे और हमारे जीवन की क़ीमत भी।हमारे कई धर्म शास्त्रों में भगवान और देवी-देवता के स्वरूप का और उनकी क्षमता और उनके बिराजने के स्थान का ज्ञान प्राप्त है।जिनका मन अनेक देवी-देवताओ और भूत-प्रेत, दोरे-धागे में अटका हुआ है, उनकी प्रवृति स्थायी करने हमारे श्रीवल्लभाचार्यजी ने भी धर्म विषय में जिनकी बुद्धि बाल बुद्धि है, एसे जीव के लिए "बाल बोध" ग्रंथ में अक्षरब्रह्म और पूर्ण पुरुषोत्तम के स्वरूप के बारे में स्पष्ट समझाया है।शास्त्र अध्ययन से भगवान और स्वस्वरूप के ज्ञान प्राप्ति के बाद जैसी जिसकी अवस्था, कक्षा, जैसा उनका अधिकार होता है, उस के अनुसार ही धर्म और भक्ति उनके जीवन में प्रवेश होती है। कोई देव तो कोई देवी की साधना करता है।जो अधिकारी जीव है वो पूर्णपुरुषोत्तम की आराधना करता है। जो जिसको भजता है उसको वो प्राप्त करता है। एेसा गीताजी में भगवान ने कहाँ है!श्री वल्लभ ने इस ग्रंथ में भी समझाया है कि हम जो भी देवी-देवता की भक्ति करेंगे वो उनके अधिकार के हिसाब से आप की भक्ति का दान दे सकते है, और मोक्ष भी उनके लोक तक का ही प्रदान कर सकते हैं। सारे देवता सब कुछ देने के लिए सक्षम नहीं होते। अगर मोक्ष की चाह है तो विष्णु की भक्ति करनी चाहिए, मोक्ष देने में विष्णु और भोग देने में शिव तत्पर होते हैं ....जिसको जो अधिक प्रिय है वो वस्तु देने में उन्हें अधिक कष्ट होता हे अतः वह वस्तु वो नहीं प्रदान करते।हर एक देवी-देवता की उपासना पद्धत्ति है। अलग अलग आराध्य को सरल और सीधे तरीके से पाने के लिए जो व्यवस्था है, उसको सम्प्रदाय कहते हैं।हम जो अलग अलग सम्प्रदाय देखते हैं उसको भी शास्त्र की अज्ञानता के कारण विभाजन समझते हैं। जो कि ये बहुत बड़ी गलत सोच है। जिसकी कई विद्वान और धर्म प्रचारक भी अज्ञानता और स्वार्थ के कारण समाज को सही समझ नहीं देते है।पर जैसे हमारे घर में हर एक काम के अलग अलग कमरे बनाए जाते हैं, अलग अलग उद्देश के लिए, रसोई खाने के लिए, शयन खंड सोने के लिए आदि.. पर ये सब घर का ही हिस्सा है, वो विभाजन नहीं है। इसे इस प्रकार भी समझ सकते ... जैसे आज की मेडिकल व्यवस्था। पहले एक ही वैध सब इलाज करते थे, पर जैसे जैसे मेडिकल फ़ील्ड ने तरक़्क़ी की वैसे वैसे सब रोग के अलग अलग विभाग हुये, जो रोग है उसके डॉक्टर के पास जाओ तो इलाज जल्दी और आसान होता है। तो जैसे ये मेडिकल फ़ील्ड का विकास है, विभाजन नहीं। एेसे ही अलग अलग सम्प्रदाय धर्म क्षेत्र का विकास है।पंचदेवता पूजन की परम्परा से अलग अलग तत्वों को भजने की परम्परा का प्रारम्भ हुआ और वह प्रारम्भ प्रभु के द्वारा होने से सम्प्रदाय कहे गए ....हमारे यहाँ मुख्य पाँच सम्प्रदाय है।१) विष्णु का-,वैष्णव सम्प्रदाय,२) शिव - शैव सम्प्रदाय,३) शक्ति- शाकत सम्प्रदाय,४) गणपति,५) सूर्य।सम्प्रदाय वो है, जिसके ८ अंग हों।१)इष्टरूप, २)आचार्य,३)मंत्र,४)वेदांत,५)साधन प्रणाली,६) परम्परा,७)धर्म चिन्ह,८) फल।हर एक सम्प्रदाय की दीक्षा पद्धति होती है। हमारे हिन्दू सम्प्रदाय में मंत्र दीक्षा की महत्ता है।एसे हमें हमारे धर्म, सम्प्रदाय, पंथ, संस्था, किसे कहे?, जिस मार्ग पर चल रहे है, उसके बारे में सब से पहले समझ होनी ज़रूरी है।श्री महाप्रभुजी अपने ग्रंथ में आज्ञा करते है, जिसको धर्म- भक्ति की राह पर चलना है, उस जीव को फल की प्राप्ति के हेतु अपने आराध्य की अनन्य भक्ति साधना करने पर ही फल प्राप्ति संभव है।(गुरुजी के प्रवचन से ....संकलन कर्ता --जागृति गोहिल