आनंद और सहजता" पाने के रास्ते....भाग -३




हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। क़रीब २०,००० साल से भी पहले का होने के सबूत मौजूद है। हिन्दू धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है।
परमपिता परमात्मा ने ही सब मनुष्यों के कल्याण के लिए वेदों का प्रकाश, सृष्टि के आरंभ में किया।

हमारी यह प्राचीन धर्म और संस्कृति को ज़िंदा बनाए रखने और सदियों तक आगे पीढी दर पीढी पहुँचाने के लिए हमारे प्राचीन हिन्दू , ऋषि-मुनियों, महर्षियों ने अपने जीवन में महान त्याग एवं तपस्या की है।

यहां शताब्दियों से मौखिक परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। असल में हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। वह समय ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर।

आगे हमारे ऋषि, संतो, महंत,और धर्म गुरुओं ने भीषण बाधाओं का सामना करते हुए और नि:शंक होकर अनेक जन जातियों को धर्मोपदेश देकर अपने धर्म में दीक्षित किया । इनका परम लक्ष्य सत्य का प्रचार और उसका विश्व में प्रसार था।
ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है। जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए।

पर समय जाते हमारे देश में , गुलामी के दिनों में विदेशी और विधर्मी शासकों ने हिन्दू समाज में फूट डालने के लिए अनेकों तरह से असमानता के बीज बोये थे।

इस्लाम धर्म भारत में अरब व्यापारियों के आगमन के साथ 7 वीं शताब्दी की शुरुआत में आया था, एक प्रमुख धर्म के रूप में इसका उदय भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिमों की विजय के साथ ही प्रारंभ हुआ।

११ वी सदी के शुरू में मुहम्मद गजनवी के हिंदुस्तान में प्रवेश के बाद विदेशी मुस्लिम आक्रामक ने गुजरात और मेवाड़ को छोड़ पूरे भारतवर्ष के ऊपर राज जमा लिया था। अफ़ग़ान पठान और घोरि वंश के सुलतानो ने दिल्ली के पृथ्वीराज चौहाण को हरा कर भारत वर्ष में मुस्लिम सत्ता को मज़बूत किया।
१३ वी सदी में रखागया बीज इतना बढा कि वो फिर सिर्फ़ सत्ता प्राप्ति तक सीमित न रह कर धर्म परिवर्तन में भी फैलने लगा। भय और बलात्कार के दम पर इस्लामिक धर्म का प्रचार ज़ोर शोर से होने लगा था। राजपूत सत्ताऐं भी उन दिनो आपसी द्वेष के कारण टूटने लगीं। एसे में धर्म परिवर्तन के साथ साथ हिंदू - जैन मंदिर, और तीर्थंकर के देवालयो को तोड़ कर मस्जिदों में परिवर्तित किया जाने लगा।
एसी परिस्थिति में भारतीय जनसमुदाय में एक दयनियता का भाव प्रबल होने लगा था। तब जनसामान्य के हृदयबल को टिकाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य उस युग में धर्माचार्यों, संतों और भक्तों ने किया। उस वक़्त दक्षिणी प्रदेशों में श्री विष्णुस्वामी, श्री रामानुजाचार्य, श्री निम्बार्कचार्य, और श्री माधवाचार्य के भक्तिमार्ग का विकास हुआ। विदर्भ में भरूच में एक गुजराती ब्राह्मण चक्रधर ने अपने गुरु गोडंबा गोविंदाचार्य के निरीक्षण में रह कर श्री कृष्ण की भक्ति के प्राधान्य वाले "महानुभाव सम्प्रदाय" को विकसित किया। महाराष्ट्र में ज्ञानदेव- नामदेव ने श्री विठोबा की श्री कृष्ण भक्ति का " वारकरी सम्प्रदाय" मज़बूत किया।

ई.स. १३५९ से लेकर ई.स १४५० तक सैयद वंश,लोदी वंश, हसन गंगू बहम, का शासन रहा।
इस समय सभी राज्य म्लेच्छो के आक्रमण से पाप ग्रस्त बन चुके थे।

एसे हालात में सभी लोगों की मनोस्थिति का अन्दाज़ लगाया जा सकता है। ग़ुलामी की शिकार जनता के आत्मविश्वास को जगाने और बढ़ाते रखने के प्रयत्न के लिए एक मात्र साधन, मार्ग था, वो था "भक्ति मार्ग"।
सांप्रदायिकता ने आधुनिक भारत के धार्मिक इतिहास को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, सूरदास, मीरा बाई, कबीर, तुलसीदास, रविदास, नामदेव, तुकाराम और अन्य मनीषियों ने उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का नेतृत्व किया।

"श्री वल्लभाचार्य" और आप के उत्तर-समकालीन "श्री गौरांग चैतन्य महाप्रभु" ने अनुक्रम से उत्तर और पूर्व के देशों में भक्ति मार्ग का बहुत प्रचार ई.स. १६ में किया था। उत्तर ने "कबीर" जेसे भक्त और पूर्व में "विद्यापति" और " नरसिंह मेहता" जैसे भक्तों ने सदी से पहले ऐसा ही भक्ति प्रचार का कार्य किया था।

और ऐसे आचार्यों और संत- भक्तों ने विकट समय में भारतीय संस्कृति को बचाने और भारत की जनमानस में आत्मविश्वास जगाने का महत्वपूर्ण प्रयत्न किया था।

आगे 1858 और 1947 में हिंदुस्तान में ब्रिटिश राज रहा। जो "फूट डालो और राज्य करो'' नीति से गुलामी स्वीकार करने वाले हिन्दुओं से, धर्म ग्रंथों की मनमानी व्याख्या करवा कर हिन्दुओं में हीनभावना और फूट डालने का काम करते रहे।

परंतु वर्तमान काल में हिंदू धर्म पर कोई बाहरी नहीं परन्तु आंतरिक म्लेच्छ ही आक्रमण कर रहे हैं। पिछले कई वर्षों में हिन्दुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिन्दू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया, जो आज भी जारी है। हिन्दू धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को व्यक्ति एक चौराहे पर खड़ा पाता है। भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परंपरा का जन्म और विकास होता रहा है।
एसे में मोक्ष, और सच्ची भक्ति के अभिलाषी जीव को सुनी सुनाई परम्परा पर विश्वास ना कर के स्वयं अपने सम्प्रदाय, पंथ, मार्ग के सिद्धतो को नये सिरे से समझने की आवश्यकता है।

अगर समृद्ध हिन्दू संस्कृति का संरक्षण न किया गया तो विश्व से ये धरोहरें मिट जायेंगी। आज भोगवादी पश्चिमी संस्कृति से हिन्दू संस्कृति को बचाने की ज़रूरत है।
हमारे श्री वल्लभाचर्यजी ने इस भूतल पर आकर भक्ति मार्ग की स्थापना के हेतु, जीव को पूर्णपुरुषोत्तम से मिलाने हेतु, तीन बार पृथ्वी परिक्रमा कर के, अपने सिद्धांतो को स्थापित कर " पुष्टि भक्ति" का प्रचार किया।

अब वक़्त आ गया है ,उन सिद्धांतो को नए सिरे से सीखने-सिखाने समझाने की आवश्यकता को स्वीकार किया जाये।

।। श्रीगुरुजी के बचनामृत से ...
संकलन कर्ता--जागृति गोहिल