महाप्रभुजी श्री वल्लभाचार्य का स्वरूप



पुष्टि मार्ग को समझने के लिए पहले श्री महाप्रभुजी का स्वरूप समझना आवश्यक है।

श्री वल्लभ का आधिभौतिक स्वरुप तैलंग कुल में विद्वान ब्राह्मण गुरु स्वरुप ।

आध्यात्मिक स्वरुप अग्नि स्वरुप वैश्वानर, वाक्पति स्वरूप "।

और आधिदैविक श्रीकृष्ण मुखारविंद स्वरूप, श्रीस्वामिनि स्वरुप एव साक्षी स्वरुप ।।

आधिभौतिक स्वरूप:-
महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को संवत् १५३५ अर्थात सन् १४७९ ई. को रायपुर जिले में स्थित महातीर्थ राजिम के पास चम्पारण्य (चम्पारण) में हुआ था।

श्री वल्लभाचार्य जी के पूर्वज आंध्र राज्य में कांकरवाड़ नामक स्थान के निवासी थे। वे भारद्धाज गोत्रीय तैलंग ब्राह्मण थे उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित प्रकांड विद्वान और धार्मिक महापुरुष थे। माता का नाम इल्लम्मागारू था। आप श्री के एक भाई और दो बहने थी।
श्री लक्ष्मण भट्ट और इल्लम्मागारू की यात्रा के दौरान इल्लम्मागारू ने एक निर्जन वन के एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु को जन्म दिया। बालक पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन सा ज्ञात हुआ, इसलिए इल्लम्मागारू और लक्ष्मण भट्ट ने मृत बालक उत्पन्न हुआ है ऐसा मान कर तक़दीर पर संतोष मानते हुए बालक को वस्त्र में लपेट कर शमी वृक्ष के नीचे वहीं छोड़ कर दोनो चौड़ा नगर में जाकर रात्रि में विश्राम करने लगे।
दूसरे दिन काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट दूर हो गया। उस समाचार को सुन कर लक्ष्मण भट्ट काशी जाने वाले दल के साथ हो लिये। जब वे गत रात्रि के स्थान पर पहुंचे, तो वहाँ पर उन्होंने अपने पुत्र को वहींं पाया, उस गड़ढे के चहुँ ओर प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल सा बना हुआ था उसके बीच में वह नवजात बालक खेलता हुआ मिला। इल्लम्मा जी ने तत्काल शिशु को अपनी गोद में उठा लिया और स्नेह से स्तनपान कराया।
इस बात से ये कहा जा सकता है कि श्री वल्लभाचार्यजी का जन्म नहींं अपितु प्राकट्य हुआ है।
वल्लभाचार्यजी की शिक्षा पाँच वर्ष की अवस्था में प्रारंभ हुई। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें 'अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र' की दीक्षा दी गई, त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। उन्होंने काशी और जगदीश पुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। आगे चलकर वे विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति-पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक बने। उन्होंने शब्द को प्रमाण बतलाया और प्रस्थान चतुष्टयी (वेद, ब्रह्मसूत्र, गीता और भागवत) के आधार पर निर्गुण एवं विरूद्ध धर्माश्रयी रूप को साकार ब्रह्म के रुप में स्थापित किया और जगत का सत्यत्व सिद्ध किया तथा मायावाद का खण्डन किया।
आचार्य रूप में श्री महाप्रभुजी का ये "आधिभौतिक स्वरूप" है।

- आध्यात्मिक स्वरूप :-
अग्नि स्वरूप
आप श्री वैश्वानर अग्नि स्वरूप है। अग्नि में अक् धातु है जो गतिवाचक है, एवं भागवत प्राप्ति कराने वाला है। जीव को ब्रह्म प्राप्ति के परम फल की और गति कराने वाला है।
आसुरावैशी देवी जीव जब श्री महाप्रभुजी के शरण आते है, तब उनके दोषों को अपने अग्नि स्वरूप से जला कर जीवों की शुद्धि करते है। यह वैश्वानर अग्नि जो प्रभु मुख स्वरूप है, यही श्री महाप्रभुजी का आध्यात्मिक स्वरूप है। जिसका प्रमाण हमें वार्ता
साहित्य से प्राप्त होता है।
आपने अपने इस स्वरूप के दर्शन दामोदर दास के भाई एवम् महमूद देगड़ा को कराए थे। जब आपने अपनी उदर की पीड़ा के लिए लाई गयी औषधि को अग्नि में डाली थी और उससे आप की उदर पीड़ा ठीक हो गयी थी।
-वाक्पति:-
श्री महाप्रभुजी ने स्वयं अपने वाक्पति होने का उल्लेख सुबोधिनि के मंगलाचरण में किया है।
माँ सरस्वती ने भी आपका वाक्पति होने का प्रमाण दिया और ओरछा राज्य के राजा की सभा में घटसरस्वती पंडित के शास्त्रार्थ में आप का वाक्पति होने का स्वीकार किया है।
जब प्रभु को पृथ्वी पर अपने माहात्म्य का विस्तार करने इच्छा हुई तब प्रभु यह कार्य "वाक्पति" श्री वल्लभाचार्य को दिया। क्योंकि प्रभु महत्म का निरूपण स्वयं प्रभु ही कर सकते है। और तब श्री महाप्रभुजी ने भूतल पर प्रकट हो कर भगवान के रसात्मक और ऐश्वर्य के महत्म को अपने शुद्धादैत सिद्धांत और पुष्टि भक्ति मार्ग द्वारा प्रकट किया।

-आधिदैविक स्वरूप:-
मुखारविंद स्वरूप:-
श्री महाप्रभुजी प्रभु के मुखारविंद स्वरूप है। प्रभु मुख में सात धर्म, सात लक्षण बिराजमान है, और वो सात लक्षण श्री महाप्रभुजी में भी बिराजमान हैंं।
1. वेद में बताया है कि अग्नि प्रभु के मुख से प्रकट हुई है, तो श्री महाप्रभुजी भी अग्नि स्वरूप हैंं।
2. सरस्वती का प्राकट्य प्रभु के मुख से हुआ है, तो श्री वल्लभ वाक्पति है।
3. ब्राह्मण प्राकट्य प्रभु के मुख से हुआ है, और श्री महाप्रभुजी तैत्रीय साखा ब्राह्मण कुल में प्रकट हुऐ।
4. प्रभु के मुख से वेद प्राकट्य है, वेसे ही श्री महाप्रभुजी वेद पारग, वेद के ज्ञाता हैंं।
5. प्रभु के मुख में अधरामृत बिराजता है, श्री महाप्रभुजी सुधारूप है।
6. प्रभु के मुखारविंद बहुत सुंदर है, श्री महाप्रभुजी का सौंदर्य भी अद्भुत है।
7. श्री प्रभु मुखरबिंद से भोग आरोगते है, तो श्री महाप्रभुजी को भी भोग धराए जाते है, भोग आरोगते है।
एसे श्री महाप्रभुजी श्री कृष्ण के मुखारबिंद स्वरूप है।

-दूसरा श्री महाप्रभुजी का आधिदैविक स्वरूप साक्षी स्वरूप है।
नित्यालिला में श्री महाप्रभुजी का प्राकट्य :-

एक बार श्री ठाकुरजी वैकुण्ठ में अकेले बिराज रहे थे। तब उनको श्री स्वामनिजी का स्मरण हो आया। वो राधा राधा नाम का उच्चारण कर रहे थे। इतना विरह हुआ की उनके रोम रोम में श्री स्वामनिजी व्याप्त हो गए, और एसे विप्रयोग से स्वामिनिजी का धर्मीस्वरूप ठाकुरजी के हृदय में प्रकट हो गया, इतने में स्वामनिजी वहाँ पधारे, और उनको लगा कि श्री ठाकुरजी की गोद में कोई और गोपी बिराज रही है, जो कि था उनका ही धर्मी स्वरूप, तो स्वामिनीजी नाराज़ हो गए, कि में यहाँ ठाकुरजी को याद करते हुई मिलने आयी और श्री ठाकुरजी किसी और गोपी के साथ हैं, वो मुँह फ़ेरके मान में बेठ गईंं। यह देख कर ठाकुरजी भी नाराज़ हो गए कि में यहाँ आप के विरह में तड़प रहा हूंं और आप मुझसे ही मान कर रहे हो.. जाओ में भी आप से बात नहीं करता। आप दोनों की जिद थी कि अब तो वो मनाएगेंं तो ही बात करूँ, ऐसा करते दोनो के हृदय में एक दूसरे का इतना विप्रयोग जागा कि दोनो के हृदय में से भाव, प्रभु के हृदय से स्वामनिजी का स्त्री भाव(भोग्या भाव) और श्री स्वामनिजी के हृदय से प्रभु का पुं भाव( भोक्ता भाव) बाहर प्रकट हुआ और दोनो भावों का आश्लेश (आलिंगन ) हुआ और उस भाव का साक्षी भाव स्वरूप परम आनंद तीनोंं भावो से युक्त त्रित्यात्मक स्वरूप प्रगट हुआ जो हमारे सद्गुरू भगवान श्री वल्लभ का हुआ अतः उन में गूढ़ भोक्ता भाव भोग्या भाव और साक्षी भाव अर्थात् वही साक्षात् श्री कृष्ण है, श्री स्वामिनी है, और स्वयं सद्गुरू आचार्य भी हैं।

श्री महाप्रभुजी के सम्पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए तीन ग्रंथ का अध्ययन करना आवश्यक है।
"सर्वोत्तम स्तोत्र"- नाम के लिये,
"वल्लभाष्टक"- स्वरूप के लिये,
और
"सप्तश्लोकी"- गुण समझने के लिये।