श्री महाप्रभुजी द्वारा स्थापित पुष्टि भक्ति मार्ग


श्री वल्लभाचार्यजी ने अपने भक्तिमार्ग का नामकरण "पुष्टिभक्तिमार्ग" श्रीमद्भागवत के आधार पर किया है। श्रीमद्भागवत में शुकदेवजी ने पुष्टि अर्थात् पोषण का अर्थ भगवान् का अनुग्रह कहा है। भगवान् श्रीकृष्ण का अनुग्रह या कृपा ही पुष्टि है।श्री महाप्रभुजी का मत है कि घोर कलिकाल में ज्ञान, कर्म, भक्ति, आदि सब मोक्ष-प्राप्ति के साधनों की न तो पात्रता रही है और न क्षमता ही है। इन साधनों से युक्त देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मंत्र और कर्म या तो नष्ट हो गये हैं या दूषित हो गये हैं। अतः इन उपायों से मोक्ष प्राप्ति या भगवान् की प्राप्ति कर सकना संभव नहीं रह गया है। ऐसी परिस्थिति में सबके उद्धार के लिए सर्वसमर्थ, परम कृपालु भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने स्वरूप के बल से, अपने सामर्थ्य से जीवों का उद्धार कर सकते हैं।इस निर्णय पर पहुँच कर आपने शास्त्रों में वर्णित, भगवत्-प्राप्ति के साधन रूप से प्रतिष्ठित, विधि-प्रधान भक्तिमार्ग से भिन्न विशुद्ध प्रेम प्रधान स्वतंत्र भक्तिमार्ग का उपदेश दिया। इसे आपने पुष्टिभक्तिमार्ग नाम दिया।पुष्टिभक्तिमार्ग :-मोक्ष की भी कामना रखे बिना श्रीकृष्ण कृपा से श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करने के मार्ग को पुष्टिभक्तिमार्ग कहते हैंं।पुष्टि भक्ति:-लौकिक और अलौकिक फल अथवा मोक्ष की भी कामना रखे बिना, माहत्मय ज्ञान के साथ सबसे अधिक स्नेह से निरंतर की हुई प्रभु की सेवा को निर्गुण-पुष्टि भक्ति कहते हैं।पुष्टिभक्तिमार्ग के अनुसार पुष्टि चार प्रकार की होती है-(1) प्रवाहपुष्टि- इसमें सांसारिक कार्यों के साथ ही साधक भगवान की प्राप्ति में प्रयत्नशील रहता है।(2) मर्यादापुष्टि- इसमें विषय भोगों से संयम करके श्रवण कीर्तनादि में अग्रसर होता है।(3) पुष्टिपुष्टि- इसमें अनुग्रह प्राप्त साधक प्रभु, प्रभु की लीला, व्रज भक्त और लीला स्थल, जगत- जीव, इत्यादि के वास्तविक ज्ञान सहित प्रभु की सबसे अधिक प्रेम पूर्ण सेवा हो उसको पुष्ट-पुष्टि भक्ति कहते है।(4) शुद्धपुष्टि- इसमें भक्त भगवान के प्रेम में निमग्न हो जाता है और व्रजभक्त की तरह स्वाभाविक, सहजभाव से ही प्रभु सेवा, स्मरण, कीर्तन करता है। इसको शुद्ध-पुष्टि भक्ति कहेते है।शास्त्रों में भगवान् की प्राप्ति करने के ज्ञान, भक्ति आदि जो भी साधन बताये गये हैं, वे सब जीव-कृत-साध्य हैंं, अर्थात् उन साधनो के लिए जीव को स्वयं प्रयत्नशील होना पड़ता है, स्वयं ही इनकी साधना करनी पड़ती है, इसलिए इन्हेंं ‘विहित साधन’ भी कहा जाता है। इन मार्गो को मार्यादामार्ग नाम दिया गया है। बन्दरिया के बच्चे को अपनी माँ को स्वयं ही पकड़ कर रखना पड़ता है। इसी प्रकार मार्यादामार्गीय भक्त को भगवत्प्राप्ति के लिए स्वयं ही प्रयत्नशील होना पडता है।शास्त्रों में वर्णित ‘मर्यादा मार्ग’ के ऊपर बताये गये विहित साधनों के अभाव में भी, जीव की पात्रता-अपात्रता, योग्यता-अयोग्यता पर विचार न करते हुए जब भगवान् अपने स्वरूप बल से, भगवद्-सामर्थ्य से जीव का उद्धार कर देते हैं तो उसे पुष्टि कहा जाता है।पुष्टिमार्ग का अर्थ उस प्रेमप्रधान भक्तिमार्ग से है, जहां भक्ति की प्राप्ति भगवान् के विशेष अनुग्रह से, कृपा से ही संभव मानी जाती है तथा यह दृढ़ विश्वास किया जाता है कि भगवान् जिस पर कृपा करते हैं, जिसे वे मिलना चाहते हैं, उसे ही मिलते हैं। इस विषय में जीव के प्रयत्न कोई महत्त्व नहीं रखते।जैसे बिल्ली के बच्चे को अपनी ओर से कुछ भी नहीं करना पड़ता। उसकी माँ को ही उसे मुहँ से पकड़ कर उठाकर ले जाना पड़ता है। ठीक वैसे पुष्टिमार्गीय भक्त के लिए भगवान् स्वयं ही साधन बन जाते है, बिल्ली के बच्चे (मार्जार शावक) की भाँति पुष्टि पर, भगवत्कृपा पर कोई भी नियम लागू नहीं होता। पुष्टिमार्ग पर भगवान् का अनुग्रह ही नियामक होता है, अन्य कोई नियम या शास्त्रीय विधान नियामक नहीं होता। पुष्टि स्वाधीन होती है। पुष्टि में भक्त का स्वातंत्र्य होता है, अर्थात् कृपालु भगवान अपने निःसाधन प्रेमी भक्त की इच्छानुसार कार्य करते हैं। भगवान् इसी कारण यशोदा मैया की इच्छानुसार रस्सी में बँध गये थे तथा गोपियों की इच्छा से छछिया भर छाछ पर नाचते थे। श्री वल्लभाचार्यजी का मत है कि पुष्टि जीव की सृष्टि भगवतरूप-सेवा के लिए ही होती है। भगवान् पुष्टि भक्त के हृदय में अपने प्रेम बीज रख देते हैं। भक्ति से वह बढ़ता चला जाता है। क्रमशः आसक्ति और व्यसन की स्थिति तक पहुँच जाता है।