पुष्टि भक्ति मार्ग के आराध्य देव और सेव्य प्रभु


पुष्टि भक्ति मार्ग के आराध्य श्री कृष्ण हैं, और आराध्यदेव के रूप में एक मात्र श्रीनाथजी हैं। श्रीनाथजी का स्वरूप प्रभु की गोवर्धन लीला का है। प्रभु ने ब्रज में यह लीला बरसो से चली आयी इन्द्रपूजा की प्रथा को भंग कर के ब्रजजनोंं का अपने में आश्रय सिद्ध करने हेतु की थी।वही स्वरूप अपने पुष्टि जीवों का आश्रय सिद्ध करने हेतु आज से ५५० साल पहले फिर से श्री गिरिराज जी में से प्रकट हुआ। और आज वो स्वरूप श्रीनाथद्वारा में पुष्टिभक्ति मार्ग के एक मात्र मंदिर में बिराजमान है।सेव्य:-श्री महाप्रभुजी की आज्ञा है कि श्रीगोकुल में बिराजमान श्रीबालकृष्ण की सेवा वात्सल्य भाव से करनी है।श्री महाप्रभुजी ने क्यों कहा है ऐसा? क्या भावार्थ है इस आज्ञा का?श्री कृष्ण की बाल्यावस्था गोकुल में फिर किशोरावस्था, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था मथुरा और द्वारिका में बीती। बालक किशोर बने तब तक माता की सेवा की आवश्यकता रहती है। खिलाना, पिलाना, नहलाना, सुलाना, जगाना..सब माता करती है । आगे की अवस्थाओं में यह सब स्वयं किया जाता है।इस लिए श्री महाप्रभुजी ने गोकुल में बिराजमान श्री कृष्ण की बालभाव से सेवा करने की आज्ञा की है।पर इसका मतलब ये नहीं है कि प्रभु को बालक समज कर हमें सेवा करनी है, वो जगत पिता है।अपितु हमें प्रभु की माँ, यशोदा माँ के भाव से निस्वार्थ प्रेम से उनके सुख हेतु सेवा करनी है।अगर प्रभु का स्वरूप बड़ा हो तो हमें माँ का भाव आने में कठिनाई आ सकती है, इस कारण बालकृष्ण की सेवा करें तो हमारा माँ का वात्सल्य भाव जल्दी और आसानी से सिद्ध होता है।सब रस में वात्सल्य रस शुद्ध, निर्दोष, और निष्काम है। जब बालक को प्रेम करते है, तब उसमें हमारा कोई स्वार्थ नहीं रहता,कोई कामना, बदले की कोई भावना, कोई अपेक्षा, और कोई भी लाभ पाने की चाह नहीं होती। और बाल भाव से सेवा करने से प्रभु के पास हमें अपने दुःख की शिकायत और कुछ माँगने की वृत्ति भी नहीं रहती।माँ और बालक का रिश्ता निस्वार्थ भाव से बंधा होता है। और निस्वार्थ भाव ही सच्चा आनंद प्रदान करता है। श्री महाप्रभुजी का मानना है, कि सच्ची भक्ति-प्रेम निस्वार्थ भाव से ही संभव है। निस्वार्थ भक्ति बालभाव से सेवा करने से फलित होती है। इस लिए एक माँ अपने बालक की कोई कामना रहित वात्सल्य से निर्दोष भाव से भक्ति-सेवा करती है, उस भाव से हमें श्री कृष्ण की सेवा करनी है। जिस भाव से व्रजभक्तों ने, गोपीजन ने सेवा करी एसे वात्सल्य भाव से सेवा करने की आज्ञा की है।श्री महाप्रभुजी ने एक और आज्ञा दी कि"सर्वदा सर्व भावेन भजनियो व्रज़ाधिप"।सारे भावों को कृष्ण में सन्निहित कर के वात्सल्य को प्रधान्यता देते हुए सेवा करनी। अर्थात् उनके सुख हेतु जीना और जिस समय जिस भाव से उनकी प्रसन्नता हो उन उन समय पर माधुर्य, सख्य,इत्यादि भावों से भी वात्सल्य भाव (बाल भाव) मुख्य रखते हुए सेवा करनी है।श्री महाप्रभुजी का बाल भाव से सेवा करने की आज्ञा का एक और कारण भी है।प्रभु श्री पूर्ण पुरुषोत्तम ने अपने आनंद के लिए स्वयं में से जीव-जगत को प्रकट किया। और फिर उस जगत के संचालन के लिए व्यूह, कला, अंश जैसे अलग अलग देव रूप को प्रकट किया। उनके नेतृत्व और संचालन हेतु फिर त्रिदेव को नियुक्त किया, ब्रह्मा, विष्णु और महेश। और त्रिदेव के ऊपर जो उनका संचालन करते हे वो ईश्वर हैं पूर्ण पुरुषोत्तम।सर्व देव रूप को प्रभु ने अपने अपने अधिकार, सत्ता और कार्य दिये। और एसे पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभु जो व्यापीवैकुण्ठ, जिसको हम नित्यलीला धाम कहते हैं,वहाँ केवल रसरूप लीला करने के लिए अपने पुष्टि जीवों के साथ बिराजमान है।श्री महाप्रभुजी इस स्वरूप को धर्मी स्वरूप कहते हैं और जो विभूतिरूप रमावैकुण्ठ में शेषसागर में शैयाजी पर बिराजमान है वो नारायण स्वरूप प्रभु का धर्म स्वरूप है। धर्मी स्वरूप गोलोकधाम में है वो केवल रसरूप लीला में तत्पर है, और धर्म स्वरूप जगत का संचालन का कार्य सम्भालते हैं।इस बात का निरूपण श्री कृष्ण ने गीताजी में किया है। युग- युग जो अवतार प्रकट होता है वो धर्म स्वरूप के है। ये धर्म के स्थापन, दुष्टों के संहार और पृथ्वी का भार दूर करने अवतार लेते है। जो हर कल्प में प्रकट होते है।"पर धर्मिस्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम का प्राकट्य सिर्फ़ एक बार "सारस्वत कल्प" में हुआ है।"श्री महाप्रभुजी आज्ञा करते हैं कि पुष्टि भक्ति मार्ग में सारस्वत कल्प की लीलाओं का अनुभव करना है।सारस्वत कल्प में मथुरा में वसुदेव और देवकीजी के यहाँ चतुर्भुज स्वरूप जो अष्टमीकी रात को प्रकट हुआ वो धर्म स्वरूप पुरुषोत्तम अपने धर्म का स्थापन, राक्षसों का संहार और पृथ्वी का भार कम करने प्रकट हुए। मथुरा में प्राकट्य के साथ हीं गोकुल में नंद भवन में यशोदाजी के यहाँ पूर्ण पुरूषोतन धर्मी स्वरूप का प्राकट्य हुआ। मर्यादा रहित रस लीला का दान करने हेतु।मथुरा से वसुदेवजी धर्म स्वरूप को गोकुल पधारा आए।धर्म अर्थात पात्र और धर्मी अर्थात उस पात्र में रहा रस, तो एसे मथुरा से आए धर्म स्वरूप रूपी पात्र में गोकुल में यशोदाजी के यहा प्रकट हुए धर्मीस्वरूप रसरूप बिराज गए। और इस लिए गोकुक में सब को एक ही स्वरूप में दर्शन हुएँ।ऐसे दोनों स्वरूप से प्रभु ने गोकुल में ११ वर्ष और ५२ दिवस लीला करी। इसमें रासलीला, माखन चोरी लीला, दान लीला, गोवर्धन लीला, जैसी बाकी सभी बाल लीला एवं किशोर लीला हैे वो पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभु की लीला है, जो भक्तों को रस का अनुभव कराने के लिए करी हैं।असुरों का संहार, धर्म के स्थापन करने वाली व्रज, मथुरा और द्वारिका में जो लीलाए करी वो मथुरा में प्रकट हुए चतुर्भुज धर्म स्वरूप ने करी है।जैसे कि पूतना वध, बकासुर वध जैसी सब लीला।इस कारण पुष्टि भक्ति मार्ग में दान लीला जैसी लीला का मनोरथ होता है, पर पूतना वध जैसी लीला का मनोरथ नहीं होता। क्योंकि वो सब पूर्ण पुरूषोत्तम की लीलाएँ नहीं है।जब अक्रूरजी मथुरा से गोकुल प्रभु को लेने आए तब अक्रूरजी के साथ मथुरा से आया हुआ धर्म स्वरूप ही वापस गया। धर्मी स्वरूप जो यशोदाजी के यहाँ प्रकट हुएँ थे, वह स्वरूप मथुरा नहीं पधारे थे। और वो धर्मी स्वरूप प्रभु वही गोकुल में भक्तों के हृदय में बिराजमान हुए। परिणाम रूप व्रज भक्तों को कभी मथुरा जाने की आवश्यकता नहीं रही।इस प्रकार मथुरा और द्वारिका में जो लीलाएँ हुई वो धर्म स्वरूप की लीलाएँ है, धर्मी स्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम की नहीं हैं। सेवन केवल धर्मी स्वरूप का होता है, और श्रवण, कीर्तन,स्मरण धर्म और धर्मी दोनो स्वरूप का होता है।इस कारण ये ११ वर्ष और ५२ दिवस की लीला है, उसको सारस्वत कल्प के मूल स्वरूप परब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभु श्री कृष्ण की सेवा मान कर श्री महाप्रभुजी ने उसे अपने मार्ग में मान्य की है।और उस भाव से ही पुष्टि भक्ति मार्ग में गोकुल के बाल कृष्ण की भक्ति कही गयी है।