पुष्टिभक्ति मार्ग की प्रभु सेवा ही साधना


हमारे हिंदू शास्त्रों में दान, व्रत, तप, जप, तीर्थयात्रा, ज्ञान, कर्म, यज्ञ, इत्यादि कई उपायों को प्रभु प्राप्ति के साधन और श्रेय साधक बताया गया है। पर पुष्टिभक्ति मार्ग की साधना में श्री महाप्रभुजी ने प्रभु की स्वरूप सेवा को प्रमुख माना है।

एसा क्यों?

श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध में श्री कृष्ण ने स्वयं उद्धवजी को कहा है, कि.. "प्रतिक्षण बढ़ने वाली मेरी भक्ति, योग, त्याग, यज्ञ, तप आदि बड़े बड़े ग्रंथो में बताए गए साधनों से ज़्यादा समर्थ है। क्योंकि मेरी प्राप्ति का सिर्फ़ एक साधन 'मेरी अनन्य भक्ति' है।"

संस्कृत भाषा में भज(= सेवा) धातु से भक्ति शब्द बनता है। और भक्ति की व्याख्या है - "माहत्मय ज्ञान और प्रेम के साथ की हुई सेवा ही 'भक्ति' है।"

यही मूल कारण है, कि श्रीमहाप्रभुजी ने प्रभु की अनन्य भक्ति की प्राप्ति के लिए अपने मार्ग में "प्रभुसेवा' को मुख्य साधन बताया है।

श्री महाप्रभुजी का "पुष्टिभक्ति मार्ग" भक्त और भगवान को स्नेह से जोड़ने वाला मार्ग है। स्नेह-प्रेम से जुड़े दो पात्र में एक-दूसरे के लिए "सम्पूर्ण समर्पण" स्वाभाविक ही होता है।जब स्नेह से दो जीव जुड़ते है तब वह एक दूसरे से सम्पूर्णत: निर्भरता और निकटता चाहते हैं। जैसे माँ-बालक का स्नेह, माँ एक पल भी बच्चे से दूर रहना नहीं चाहती, चाहे कही भी रहे माँ का मन बच्चे में ही रहता है। कब दूसरे कार्यों से मुक्त हो जाऊँ और बच्चे का लालन-पालन करूँ? यहीं लालसा रहती है।

एसे ही प्रभु का भक्त-स्नेही प्रभु की सेवा छोड़ कर शास्त्र में बताए अन्य साधन में व्यस्त नहीं रहता। और यही स्नेह प्रेम से की हुई प्रभु की सेवा ही "भक्ति" है।

भक्ति जीव के स्वयं के सामर्थ से प्राप्त नहीं हो सकती, जब प्रभु को कृपापात्र जीव से सेवा समर्पण की इच्छा होती है, तब जीव में प्रभु के लिए भक्ति भाव जागता है। और एसे जीव से प्रभु सम्पूर्ण समर्पण चाहते हैं। जिसका उल्लेख स्वयं प्रभु ने अर्जुन को समझाते हुए "गीताजी" में किया है... कि "हे अर्जुन तू मुझे बहुत प्रिय है, इस लिए तेरे हित के लिए कह रहा हूँ कि तू मुझमें मन लगा, मुझ को आत्मसमर्पण कर, मेरा सेवक बन। तू मुझे प्रिय है इस लिए ये सत्य बता रहा हूँ। ऐसा करके तू मुझे प्राप्त करेगा।"

इससे स्पष्ट समझ सकते हैं कि प्रभु अपने प्रिय भक्तों से सम्पूर्ण समर्पण चाहते हैं। और ...
प्रभु के भक्त के लिए प्रभु सेवा सर्वोत्तम साधन है। प्रभु सेवा रहित जीवन व्यर्थ होता है। प्रभु सेवा करे तो फिर स्वयं के भोग, कल्याण और सुख का विचार नहीं रहता।

शास्त्र में बताए हुए सब साधन प्रभु प्राप्ति के लिए आवश्यक ज़रूर हैं पर अगर वह साधन प्रभु सेवा रहित हो रहे हैं, तो वह सभी साधन भक्ति मार्ग में व्यर्थ है। इस विचार से श्रीमहाप्रभुजी ने प्रभू स्वरूप सेवा का समावेश पुष्टि भक्ति मार्ग में किया हैं। और शास्त्र में बताए हुए सभी साधन का समावेश भी प्रभुसेवा के अंतर्गत किया है।
जैसे:-
ज्ञान :- प्रभु के दिव्य स्वरूप, प्रभु के गुण, प्रभु की लीलाओं का ज्ञान ही एक भक्त के लिए सच्चा ज्ञान है।
योग/ध्यान :- प्रभु में अपना मन लगा कर प्रभु की सेवा करने से भक्त का ध्यान सिद्ध होता है।
जप :- प्रभुसेवा के समय में और अनवसर में प्रभु के स्वरूप, गुण, लीला, नाम का स्मरण- कीर्तन ही भक्त जा जप है।
त्याग :- असमर्पित भोग, अन्याश्रय और दु:संग का त्याग ही भक्त के लिए सच्चा त्याग है।
तप:- असद् वाणी, विचार, व्यवहार पर संयम और आधिदैविक दुःख (विरह..) को सहना ही भक्त का तप है।
व्रत-उपवास :- असमर्पित भोग का आजीवन त्याग, एकादशी और सभी जयंती में प्रभु को उत्तम भोग समर्पित कर प्रभु की प्रसन्नता हेतु उसे ग्रहण कर प्रभु सेवा, स्मरण, कीर्तन करना ही वैष्णव का व्रत-उपवास है।... एसे सभी शास्त्र के बताए साधन-साधना का समावेश श्रीमहाप्रभुजी ने अपने मार्ग के साधना प्रणाली "स्वरूप सेवा" में किया है।

शास्त्रों में भगवत् प्राप्ति के कई साधन बताए है, उसके साथ ही भगवत् प्राप्ति बाधक का भी वर्णन आता है। भगवत् प्राप्ति के लिए अहंता-ममता को शास्त्र ने सब से बड़ा बाधक तत्व बताया है।

क्योंकि अहंता (मैं) और ममता(मेरा) ही जीव को संसार में आसक्त बनाता है। अहंता के कारण जीव आत्म केन्द्रित बनता है और स्वयं के अतिरिक्त कुछ और सोच नहीं पाता। अहंता-ममता ही काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दुर्गुण को पालता है।

हमारी अहंता सामान्यत: अपने देह से होती है। मैं कौन? इसके उत्तर में स्त्री, पुरुष, माँ, पिता, डॉक्टर, वक़ील,आमीर, ग़रीब...जैसे जितने भी उत्तर मिलते हैं, वो सब हमारी अहंता है। और हमारी अहंता हमारे नाशवंत देह से जुड़ी होती है। और इस कारण देह के नाश के साथ हमारे अहंता के आवरण के लिए पूरा जीवन जो परिश्रम किया, वह सब भी व्यर्थ हो जाता है।

अहंता के रक्षण-पोषण के बजाय जीव अपने अविनाशी प्रभु के अंशरूप जीवात्मा का पोषण, प्रभु भक्ति द्वारा करे तो संसार सागर को पार कर सकता है।

इस बात को ध्यान में रख कर श्रीमहाप्रभुजी ने पुष्टिभक्ति मार्ग की सेवा साधना में अहंता की आश्रयभूत जो देह है उसके विनियोग की आज्ञा की है।

जीव की ममता अपने घर-परिवार, धन-सम्पत्ति.. आदि में होती है। जो कि जीव को अपनी और खींच के रखता है, और जीव संसार में ही डूबा रहता है। जीव को और कुछ सोचने ही नहीं देता। इस कारण शास्त्र में घर-परिवार, धन-सम्पत्ति आदि.. को अंधा कुआँ कहा गया है, जहाँ से वापस मुड़ना कठिन सा होता है, इस कारण ममता भी आत्मप्राप्ति और प्रभुप्राप्ति के लिए बाधक है। पर अगर इन्ही घर-परिवार, धन आदि ममता वाले विषयों को प्रभु के साथ जोड़ दिया जाय तो वह प्रभुभक्ति में बाधक न रह कर साधक बन सकते हैं। और इस विचार से श्रीमहाप्रभुजी ने ममत्व वाले घर-परिवार, धन-सम्पत्ति... आदि को प्रभु सेवा में उपयोग में लेने की आज्ञा की है।

इस तरह "प्रभु सेवा साधना" जीव के प्रभु प्राप्ति के बाधक तत्व "अहंता-ममता" को भी साधक बनाती है।

आत्म निवेदन सहित प्रभु सेवा से अहंता की जगह "मैं प्रभु का दास हूँ" और आत्मसमर्पण सहित सेवा करने से "घर, परिवार, धन, सम्पत्ति... सब मेरे प्रभु का और प्रभु के लिए है" जैसी अलौकिक ममता का भाव प्रकट होता है।

जीव में ऐसी अहंता-ममता का शुद्धीकरण करने की क्षमता प्रभु की सेवा-भक्ति के अलावा अन्य कोई साधनों में नहीं है। और इस लिए यह भी एक कारण है कि श्रीमहाप्रभुजी का मार्ग सेवा प्रणाली का है।

श्री कृष्ण ने श्रीमद् भागवत् गीता में कहा है....तपस्वी, ज्ञानी, कर्म करने वाले से योगी श्रेष्ठ है। और जो योगी आत्म समर्पण सहित श्रद्धा से मेरी सेवा करता है,उसे मैं सर्व से उत्तम मानता हूँ।

प्रभु को जो अतिप्रिय हो, वह करना सेवक का धर्म है। और प्रभु ने जब स्वयं सर्व साधन में सेवा को उत्तम कहा है,तब इन सब कारणों के विचार से श्री महाप्रभुजी ने पुष्टि भक्ति मार्ग में सेवा साधना को महत्ता दी है।