पुष्टि भक्ति मार्ग का सेवास्वरूप




सेवा करना सेवक का धर्म है। जीव प्रभु का दास है और दास का धर्म स्वामी की (प्रभु की) सेवा करना है। यही भाव से आचार्यचरण श्री महाप्रभुजी ने "कृष्ण सेवा सदा कार्या" की आज्ञा की है।

श्री महाप्रभुजी ने "सिद्धांत मुक्तवली" ग्रंथ में दो प्रकार की सेवा का निरूपण किया है।

१ - साधनरूप सेवा:-(तनुवित्तज़ा सेवा)
जिस उपाय (तनु-वित्तज़ा) से चित्त सम्पूर्णत: प्रभु चरणो में स्थिर होता है, उसको "साधन रूप सेवा" कहते हैं।

भगवान के हम अंश, प्रभु के भक्त होने के नाते हम प्रभु के दास हैंं। और क्योंकि हम दास हैंं, हमारी सब वस्तु जिसको हम आज तक हमारी समझ रहे थे, और उसका उपभोग भी हम ऐसे ही आज तक करते आये है, उन सभी के असली मालिक तो प्रभु ही हैंं। इस लिए हमारा सही कर्तव्य यह है, कि हम हमारे सर्वस्व का समर्पण कर के प्रभु की सेवा करें। जब तक हम हमारे देह, परिवार, घर, धन-सम्पत्ति वगैरह सर्व वस्तु का, प्रभु सेवा में उपयोग में नहीं लाते तब तक समर्पण नहीं कहा जाएगा।

इस सर्व स्वसमर्पण का उपदेश श्री महाप्रभुजी ने "सिद्धांत रहस्य" ग्रंथ में किया है, कि किसी भी वस्तु का उपयोग स्वयं के लिए उपयोग में लाने से पहले प्रभु समर्पित करें। और यह सर्वस्व समर्पण का उपदेश ही तनुवित्तज़ा सेवा है।

अहंता-"मैैं" पना के धर्म, और ममता- "मेरे" पने का धर्म ही संसार है।और यही जीव का अज्ञान है। यही दुःख का कारण भी है। अहंता और ममता ही सर्व दुःखों का मूल है।

तनु-वित्तज़ा सेवा से संसार के दुःखों की निवृत्ति होती है, और ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है।

"सिद्धांत मुक्तवाली" ग्रंथ में श्री महाप्रभुजी ने समझाया है कि "तनुवित्तज़ा सेवा" ही प्रभु चरण में चित्त स्थिर करने का उपाय है।
यहाँ "तनु" का मतलब देह के साथ साथ इंद्रिय-प्राण-अंत:करण (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार), और "वित्तज़ा"का मतलब पैसे के साथ साथ घर-परिवार, सम्पत्ति सर्व पदार्थ सर्वस्व का प्रभु सेवा में समर्पण है।
सर्वस्व का प्रभु चरण में समर्पण तब ही सम्भव है, जब तनु और वित्त एसे दोनों का एक साथ प्रभु सेवा में विनियोग करें। अगर कोई सेवक से किसी कारण वस स्वयं से सेवा करना संभव नहीं हो रहा या किसी और कारण से सेवक किसी और से घर में सेवा कराये और एसे वित्त स्वयं का पर तनु किसी और का हो तो वो सेवा नहीं हुई। एसे सेवा स्वयं करे पर वित्त किसी और का हो तो वो भी सेवा नहीं है। एसे तनुजा सेवा और वित्तज़ा सेवा आज प्रचलित ज़रूर है, पर श्री महाप्रभुजी, श्री गुसाँईजी और अन्य आचार्यों ने अपने ग्रंथो में इस प्रकार से हो रही सेवा को मान्य नहीं किया है। तन किसी का और धन किसी और का लगे तो वह सेवा तनुजा और वित्तजा एसे अलग अलग करने की सोच वह फलात्मक सेवा बनती ही नहीं। अपितु यह सेवा ही ना बनने के कारण श्री महाप्रभुजी के भक्ति मार्ग़ में बताए गए फल कभी सम्पादित नहीं होता। अत: तनु और वित्तज़ा नहीं पर "तनुवित्तज़ा ऐसे दोनो साथ में करने की आज्ञा है।

२- फलरूप सेवा:-( मानसी सेवा)-

सेवक का चित्त जब प्रभु के सिवा कही भी ना जाय, और सिर्फ़ प्रभु में सदा स्थिर हो जाय, सदा प्रभु का ही समरन-चिंतन रहे, तो उस अवस्था को "फलरूप सेवा' कहते हैंं।

श्री कृष्ण की अहरनिश सेवा में, शुरू में क्रियात्मक सेवा की प्रधानता है। तनु-वित्तज़ा सेवा करते करते प्रभु में भाव की वृद्धि है। जैसे श्री महाप्रभुजी ने "भक्ति वर्धिनी" ग्रंथ में वर्णित किया है, उसमें तनु-वित्तज़ा सेवा करने से सेवक नवधा भक्ति के पहले सात प्रकार की भक्ति, श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन,अर्चन, वंदन और दासत्व भक्ति तक पहुँचता हैं। इससे सेेवा में भाव की वृद्धि होती जाती है, और प्रेम, व्यसन और आसक्ति की अवस्था प्राप्त होती है।
और एसे अंत: करण में भगवान की साक्षात अनुभूति होती हैं। बाह्य साधन के बिना केवल मन के भाव से सेवा होने लगती है। और तब वो सेवा मानसी सेवा बनती हैं।

जो सेवा शुरू में बाह्यरूप साधन रूप सेवा थी, वही बाद में आंतर रूप फलात्मक सेवा बनती है। ऐसे साधन रूप बाह्य सेवा का फल ही फलात्मक मानसी सेवा है।

ऐसी मानसी सेवा, जो व्रज भक्तों को, गोपीजनों को सिद्ध थी। गोपियोंं की चित्तवृत्ति प्रतिक्षण प्रभु में लगी रहती थी। उनका मन प्रभु के सिवा अन्य किसी भी लौकिक-भौतिक पदार्थों में अटका नहीं था।

मानसी सेवा सिद्ध होने पर हमारी अहंता आधिदैविक दासत्व में परिणीत होती है, और हमारी ममता भगवद्रुप प्रेम मे सदैव रची रहती है।