पुष्टिमार्ग की दीक्षा और अधिकार



पुष्टिजीव की उत्पत्ति के प्रभु के प्रयोजन को बताते हुए श्रीमहाप्रभुजी "पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद" ग्रंथ मे आज्ञा करते हैं कि "पुष्टि जीव की उत्पत्ति प्रभु की सेवा करने हेतु ही हुई है" और प्रभु के श्रीअंग से हुई है ।
एसे प्रभु के उत्तम प्रयोजन के बावजूद प्रभु से दूर होने के कारण और अज्ञान कराने वाली अविद्या-मायाशक्ति के कारण पुष्टि जीव स्वयं का प्रभु के साथ सम्बन्ध और प्रभु स्वरूप, प्रभु के प्रति स्वयं का कर्तव्य के ज्ञान को भूला है और लौकिक में आसक्त बना है। पर क्योंकि पुष्टिजीव की उत्पत्ति का प्रयोजन स्वयम् (प्रभु) की सेवा कराने का था, इसलिये पुष्टि जीवों को अपने मूल कर्तव्य "प्रभूसेवा" की और ले जाने हेतु श्रीप्रभु ने श्रीमहाप्रभुजी को पुष्टि भक्ति मार्ग प्रकट करने की आज्ञा करी।

अब अज्ञान और अहंता ममता से ग्रस्त जीवों को प्रभु सेवा में प्रवृत करने से पूर्व उनको प्रभुसेवा करने योग्य बनाना आवश्यक था।
प्रभुसेवा में प्रवृत होने के लिए पुष्टि जीव को भगवदाश्रय, सर्वसमर्पण, अन्याश्रयत्याग, असमर्पितत्याग, दु:संगत्याग.. ईत्यादि स्वमार्ग के मूल सिद्धांत का ज्ञान होना आवश्यक होता है। साथ ही अपने घर-परिवार में प्रभु सेवा योग्य वातावरण बनाना और अपने मन को विवेक, धैर्य और आश्रय से सेवा योग्य बनाना आवश्यक है।

जिस तरह पाठशाला में प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्राथमिक पाठशाला की व्यवस्था है, ऐसे ही श्रीमहाप्रभुजी ने पुष्टिभक्ति मार्ग में शरणमार्ग का आयोजन किया है। प्रभु कृपा से इस मार्ग में प्रवेश के बाद प्रभु सेवा करने के लिए योग्य बनने जीव को "अष्टाक्षरमंत्र" की दीक्षा मिलती है।
शरणमार्ग के कर्तव्य का पालन करते करते जीव जब प्रभूसेवा करने की योग्यता को प्राप्त कर लेता है, तब अपने घर में प्रभु को पधराकर, अपने सर्वस्व का समर्पण कर के प्रभुसेवा करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए "आत्मनिवेदन" की दीक्षा प्राप्त करता है।

इस मार्ग के अंतर्गत शरणमार्ग और समर्पणमार्ग,ऐसे दो मार्ग का समावेश है। और इस मार्ग में प्रवेश पाने के हेतु शरणदीक्षा और समर्पण मार्ग के लिए समर्पणदीक्षा जिसको आत्मनिवेदन दीक्षा और ब्रह्मसम्बंध दीक्षा भी कहते हैं, वो दीक्षा का दान दिया जाता है।

पुष्टिजीव को पुष्टिमार्ग की दीक्षा कौन प्रदान कर सकता है? :-

श्री महाप्रभुजी ने अपने "तत्वार्थदीपनिबंध" ग्रंथ में पुष्टिभक्ति मार्ग के फल की प्राप्ति के लिए दीक्षादाता गुरु के लक्षण का भी वर्णन किया है। उसके अनुसार पुष्टिमार्गीय दीक्षा देने वाले गुरु में चार लक्षण आवश्यक है।
१- कृष्णसेवा परायण:- जो प्रभु सेवा में तत्पर होते है।
२- दंभादिरहितता:- प्रभूसेवा बिना, भक्तिभाव का बाह्य दिखावा करना,पैसा, प्रतिष्ठा अथवा लोभ केे लिए सेवा करने वाला, अहंकार जैसे दुर्गुण नहीं होने चाहिए।
३- भागवत्तत्वज्ञान :- श्रीमद्भागवत पुराण के तत्व ज्ञान का जानकार होना चाहिए।
४:- नरत्व:- संस्कृत में 'नर' पुरुष होता है और पुरुष याने ही प्रकृति का नियामक पुरुष, हम सब पुष्टि जीवों की प्रकृति के श्री वल्लभ ही नियामक है। श्रीवल्लभ को गुरु और वल्लभकुल बालकों को गुरुद्वार कहा गया है।

इसप्रकार श्रीमहाप्रभुजी के ग्रंथ द्वारा ये स्पष्ट होता है कि, पुष्टिमार्ग के दीक्षादाता सिर्फ़ श्री महाप्रभुजी है।

इतनी बात ही पर्याप्त नहीं है। वह वल्लभकुल बालक दीक्षा दान के पश्चात (बाद) अपना प्राथमिक गुरु का कर्तव्य, कि गुरु अपने शिष्य को स्वमार्गीय सिद्धांत-ग्रंथ का शिक्षण प्रदान करे, वो भी होना आवश्यक है। क्योंकि शिष्य को पढ़ाए बिना सिर्फ़ दीक्षा दे देने से गुरु का गुरुत्व सिद्ध नहीं होता है। इस लिए दीक्षा देने के बाद अगर गुरु शिष्य को अभ्यास ना कराते हों या मार्ग के सिद्धांत से अज्ञात हों तो ऐसे में श्री महाप्रभुजी जो समस्त मार्ग के गुरु हैं, उनको अपना सदगुरु मान कर मार्ग के सिद्धांतो के जानकार से मार्ग की रीत का ज्ञान प्राप्त कर सेवा स्मरण कर सकते हैं ऐसी श्री पुरुषोत्तमजी आज्ञा करते है।

२:- पुष्टिमार्ग के शिष्य:-

पुष्टिमार्गीय फल देने के लिए जिस जीव पर प्रभु कृपा करे वही पुष्टि जीव है। और ऐसे जीव पुष्टिमार्ग में प्रवेश के अधिकारी हैं, और ऐसे जीवो के दोषों की ही निवृत्ति ब्रह्मसम्बंध द्वारा हो सकती है। और प्रभु सेवा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति भी ऐसे जीव को ही हो सकती है।
गुरु का कर्तव्य है कि दीक्षा लेने वाला जीव पुष्टिजीव है या नहीं उस बात की पहले परख करें, मार्गरुचि की परीक्षा करें, कि दीक्षा लेने वाला सही में मार्ग के सिद्धांत के अनुसार सेवा-स्मरण के सहित जीवन के लिए तत्पर है या नहीं?
क्योकि अयोग्य जीव को दीक्षा देने से स्वयं गुरु को हानि होती है ऐसी आज्ञा श्रीगुसाँईजी करते हैं।
शिष्य भी मार्ग के सिद्धांतो पर चलने की इच्छा वाला होना चाहिए। केवल दीक्षा प्राप्त करे पर मार्ग के सिद्धांत के अनुसार आचरण न करे, दीक्षा के पश्चात शरणमार्ग का पालन न करता हो, और ब्रह्मसंबंध की दीक्षा प्राप्त करने के बाद भी सर्वसमर्पण कर के जीवन व्यतीत न करता हो तो ऐसे पुष्टिजीव को भी पुष्टिमार्ग के फल (प्रभु की प्राप्ति) की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती।
यह सभी बातें प्रभु भक्ति के अभिलाषी सर्व वैष्णव के लिए विचारणीय है।