श्री गिरिराजजी का स्वरूप


श्री गिरिराजजी पुष्टिमार्ग में भगवद् रूप अति पूजनीय हैं। श्री महाप्रभुजी के मार्ग के परम आराध्य देव "गिरिराजधरण श्रीनाथजी" का प्राकट्य श्री गिरिराजजी में से हुआ है। श्रीमद् भागवतजी में वेणु गीत के प्रसंग में गोपिओं ने श्री गिरिराजजी के स्वरूर्प वर्णन करते हुए कहा है कि ये कोई पत्थर अथवा जड़ स्वरूप नहीं अपितु साक्षात् हरिदासवर्य हैं।इसी भाव से पुष्टिमार्ग में भी श्री गिरिरिजजी को हरिदासवर्य कहा गया है क्योंकि श्री गोवर्धन का देह, कंदराऐ, लता-पेड़, पौधे सब कुछ सदैव प्रभु की सेवा में समर्पित रहते हैं, श्री गिरिराजजी निर्गुण भक्तवर्य हैं।श्री गिरिराजजी के तीन स्वरुप:-आधिभौतिक स्वरुप- हमारे चरम चक्षु से जो पर्वत रूप श्री गिरिराजजी के दर्शन हम करते हैं, वह उनका अधिभौतिक स्वरुप है।आध्यात्मिक स्वरुप;- श्री भागवतजी में दर्शित श्री हरिदासवर्य स्वरुप उनका आध्यात्मिक स्वरुप है, अधम और संसारी को भी भक्त बनाने का सामर्थ्य आप में है, हमारी इन्द्रियों को प्रभु के साथ जोड़ते हैं, सेवारस का दान करते हैं, भक्त की भक्ति बढ़ाते हैं, इस कारण भक्त उनकी चरण रूप तलहटी का आश्रय लेते हैं, श्री गिरिराजजी की तलहटी में रही व्रजरज में प्रभु के चरणारविन्द के स्पर्श होने से वह रज भगवद्स्वरुप हैं।आधिदैविक स्वरुप:- श्री गिरिराजजी का श्रीप्रभु की लीलास्थली के रूप में अनुभव, भक्तवर्य रूप से और भगवद रूप से होता हैं। कृपा के अधिकारी भक्त को लाल धोती, उपरना, लाल पाग और छड़ी के साथ सात साल के प्रभु के रूप में, गौ के रूप में, और कभी सफ़ेद सर्प के रूप, सिंह स्वरुप से और कभी ग्वाल स्वरुप से दर्शन होते हैं।गर्ग संहिता के अनुसार गोलोक में भगवान श्री कृष्ण के वक्ष स्थल में से सौ शिखर वाले अति दिव्यमान श्री गिरिराज जी का प्रगट्य हुआ है। बाद में उतराखंड में शाल्मली द्वीप में द्रोंण पर्वत पर तीन शिखर वाले गोवर्धन रूप से प्रकट हुए तब एक बार मुनि पुलस्त्य भ्रमण करते हुए गोवर्धन पर्वत जा पहूँचे, वहां का सुंदर मनोहर दृश्य देखकर उनका हृदय प्रसन्न हो गया उनके मन में गिरिराज को अपने साथ ले जाने का विचार उत्पन्न हुआ।मुनि ने राजा द्रोणाचल से गोवर्धन ले जाने की बात रखी, ऋषि ने कहा कि वह जहां से आए हैं वहां पर एक भी सुंदर पर्वत नहीं है अत: आप इस अनमोल रत्न को मुझे सौंप दें। परंतु राजा ने मुनि को कुछ और मांगने को कहा, वह गोवर्धन नहीं देना चाहते थे। यह सब बातें गोवर्धन ने सुन ली और मुनि से कहा कि मैं आपके साथ जाने के लिए तैयार हूं किंतु मेरी एक शर्त है कि आप मुझे जहां भी रखेगें मैं वहीं पर रूक जाऊंगा और वहां से हिलूंगा भी नहीं।मुनि ने यह बात स्वीकार कर ली, पुलस्त्य मुनि गोवर्धन को अपने दायें हाथ पर रख कर काशी के लिए निकल पडे़ जब रास्ते में व्रज प्रदेश आया तब मुनि साधना के लिए वहीं रूक गए और उन्होंने गोवर्धन को भूल वश वहीं रख दिया, जब मुनि की साधना समाप्त हुई तो उन्होंने पर्वत को उठाना चाहा परंतु गोवर्धन तो अपने वचन अनुसार वहीं पर स्थिर हो चुके थे।उन्हें गोवर्धन की कही बात याद आई परंतु ऋषि न माने और हठ करने लगे इतने पर भी जब पर्वत अपने स्थान से नहीं हिला तो उन्हें बहुत क्रोध आया ओर क्रोधवश उन्होंने पर्वत को श्राप देते हुए कहा कि गोवर्धन तुम घरती में धसते चले जाओगे और एक दिन पूर्ण रुप से धरती के गर्भ में समा जाओगे। श्री गिरिराजजी ने सोचा कि कोई बात नहीं, जब तक प्रभु की लीलाऐं हैं तब तक भूतल पर रहूंगा, और जब कलयुग अपने सर्वोच्च अवस्था में आएगा तब वापस तिरोधान कर गोलोक पधार जाऊँगा। और इसी कारण से श्री गोवर्धन प्रतिदिन नीचे धसते चले जा रहे हैं।हमारे भक्त कहते हैं कि भले ही अन्य लोगों के लिए कलयुग चल रहा हो पर जब तक इस भूतल पर श्री गोकुल, श्री यमुनाजी, श्री गिरिराजजी, गायें और श्रीमद् भागवद कथा रसपान के तत्व हैं तब तक वैष्णव के लिए कलयुग नहीं आया हैं।सारस्वत कल्प में श्री गिरिराजजी १४ कोस लम्बे, ७ कोस ऊंचाई में और ४ कोस चौड़े थे। उनकी छाया तब मथुरा तक पहुचती थी, और श्याम घाट, गुलाल कुंड, बिल्छुकुंड, चन्द्र सरोवर, राधा कृष्ण कुंड, जमनावता आदि श्री गिरिराजजी की तलहटी में ही थे। श्री पुलस्त्य मुनि के श्राप के कारण आज उनका कद पहले से छोटा है।यह पूरी परिक्रमा ७ कोस अर्थात लगभग २१ किलोमीटर है। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जतीपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं।परिक्रमा में पड़ने वाले प्रत्येक स्थान से श्रीकृष्ण की कथाएँ जुड़ी हैं। परिक्रमा का आरंभ मुखारविंद मंदिर से है, ये वह स्थान है जहाँ पर श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ था। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहाँ आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहाँ परिक्रमा करने आए हैं। यह अर्जी लगाने जैसा है।उनके अंदर ६ ऋतुओं का निवास नित्य रहता है।१) चरण घाटी से दंड्वती शिला तक पहली निकुंज में सूर्योदय से दस घडी दिन तक बसंत ऋतु (दस बजे तक) रहती है।२) दड्वती शिला से मानसी गंगा तक दूसरी निकुंज में सुबह दस बजे से बारह बजे तक ग्रीष्म ऋतु रहती है।३) मानसी गंगा से श्रीकुंड तक तीसरी निकुंज में वर्षा ऋतु दोपहर दो बजे से शाम तक रहती है।४) श्री कुंड से चंदसरोवर तक शरद ऋतु शाम से रात दस बजे तक रहती है।५) चन्द्र सरोवर से आन्यौर तक हेमंत ऋतु रहती है, जो रात दस से सुबह के दो बजे तक रहती है। (यह ऋतु मार्गशीष पोषमाह में होती है।)६) आन्यौर से गोविन्द कुंड तक शिषिर ऋतु रहती है जो रात के दो बजे से सूर्योदय तक रहती है। (यह ऋतु माघ-फाल्गुन मास में होती है।)इस तरह बारह मास में छः ऋतु श्री गिरिराज जी में नित्य निवास करती हैं साथ ही उनमे बारह निकुंज ,सोलह कंदरा, ग्यारह मुख्य शिलाए और आठ द्वार हैं।श्री गिरिराजजी अपने सर्व अंग से प्रभु की सेवा करते हैं इस लिए प्रभु को वो अति प्रिय हैं। आप श्री प्रभु को आरोगाने के लिए कंदमूल, फल आदि भेंट धरते हैं प्रभु के बिराजने के लिए अपनी शिला का सिंहासन सजाते हैं। गौचरण के लिए कोमल घास उगाते हैं और पीने के लिए शीतल पानी के झरने बहाते हैं। उनके श्रीअंग पर सखाओं के साथ प्रभु अनेक क्रीड़ाए करते हैं श्रीकृष्ण और बलरामजी के चरणारविन्द के स्पर्श से सदा रोमांच में रहते हैं।इससे श्री गिरिराजजी हरिदासवर्य हैं श्री ठाकुरजी, व्रज भक्तों, गायों की सेवा में सदा तत्पर रहते हैं। जो भगवद सेवा,भगवदीय सेवा और गौ सेवा निष्काम भाव से करते हैं वही हरिदास है