पुष्टिमार्ग मे व्रज की महत्ता


अखिल ब्रह्माण्ड की आत्मा श्री कृष्ण समस्त ब्रह्माण्ड के एक मात्र अधीश्वर हैं, समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी हैं। वही सर्वव्यापक हैं, अन्तर्यामी हैं। सच्चिदानन्द श्री कृष्ण का निजधाम, उनकी बाल लीलाओं का साक्षी एवं श्री स्वामनीजी का हृदय है ‘ब्रज धाम’। भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज में प्रकट होकर रस की जो मधुरतम धारा प्रवाहित की उसकी समस्त विश्व में कोई तुलना नहीं है। बड़े-बड़े ज्ञानी, योगी, ऋषि मुनि, देवगण सहस्र वर्ष प्रभु के दर्शन पाने को तप करते हैं फ़िर भी वो प्रभु का दर्शन प्राप्त नहीं कर पाते, वहीं इस ब्रज की पावन भूमि में परम सच्चिदानन्द श्री कृष्ण सहज ही सुलभ हो जाते हैं।
समस्त ब्रज मण्डल को बैकुण्ठ से भी सर्वोपरि बताया है। वैकुण्ठ अति दिव्य सत्व प्रधान भूमि है, जहाँ मनुष्य अपने पुरुषार्थ से पहुँच सकता है। वहाँ जाने के बाद जीव संसार में नहीं आता है। वैकुण्ठ में ऐश्वर्य है ,जहाँ के प्रभु राजाधिराज हैं, और जहाँ ऐश्वर्य होता है, वहाँ मर्यादा होती है। लेकिन ब्रज में प्रेम है, ब्रज में कोई मर्यादा नहीं है। ब्रज का हर वृक्ष देव हैं, हर लता देवांगना है, देवलोक-गोलोक भी ब्रज के समक्ष नतमस्तक हैं। सम्पूर्ण ब्रज-मण्डल का प्रत्येक रज-कण, वृक्ष, लताए, पावन कुण्ड-सरोवर श्री गिरिराजजी की तलहटी, और श्री यमुनाजी श्रीप्रिया-प्रियतम की नित्य निकुंज लीलाओं के साक्षी हैं। ब्रज में श्री कृष्ण किसी के बालक हैं, तो किसी के सखा हैं। श्री कृष्ण ने ब्रज में रहकर ब्रजवासियों को जो आनन्द दिया है, वह वैकुण्ठ में भी नहीं है। यहाँ श्रीकृष्ण की आज्ञा के बिना कोई एक क्षण भी नहीं ठहर सकता।
श्री कृष्ण ने अपने ब्रह्मत्व का त्याग कर सभी ग्वाल बालों और ब्रज गोपियों के साथ अनेक लीलाएँ की हैं। यहाँ उन्होंने अपना बचपन बिताया। जिसमें उन्होंने गोपियों का मार्ग रोकना और उनसे दधि का दान माँगना, ग्वाल बालों के साथ क्रीड़ा, गौचारण, माखन चोरी, कालिया दमन आदि अनेक लीलाऐं की हैं। प्रभु की सभी निकुँज लीलाऐं सभी भक्तों, रसिकजनों सन्तों को आनन्द प्रदान करती हैं। भगवान कृष्ण की इन लीलाओं पर ही ब्रज के नगर, गाँव, कुण्ड, घाट आदि स्थलों का नामकरण हुआ है।
ब्रज की ऐसी विलक्षण महिमा है कि स्वयं मुक्ति भी इसकी आकांक्षा कराती है।

“मुक्ति कहे गोपाल सों मेरिउ मुक्ति बताय ।
ब्रज रज उड़ि मस्तक लगे मुक्ति मुक्त हो जाय ।।”

पुष्टि मार्ग में ब्रज की महिमा:-

वैसे तो श्री कृष्ण भक्ति धारा के कई विभिन्न संप्रदाय है और सब संप्रदाय में कृष्ण की जन्म भूमि ‘ब्रज’ की विशिष्ट महिमा होना स्वाभाविक है, परंतु श्री महाप्रभुजी के द्वारा प्रवर्तित पुष्टिभक्ति मार्ग के लिए ब्रज की महिमा का विशेष कारण रहा है क्योंकि पुष्टि भक्ति मार्ग का प्राकट्य ही ब्रज में हुआ है।

श्री महाप्रभुजी वि० संवत् १५६३ (ई. सन् १५०६) के श्रावण मास में श्री गोकुल पधारे और वहाँ गोविन्दघाट पर विश्राम किया। श्रावण शुल्क एकादशी की मध्यरात्रि में दोषों से भरे जीव को प्रभु कैसे स्वीकार करेंगे? इस मानव-कल्याण के चिन्तन में मग्न श्री वल्लभाचार्य के सम्मुख साक्षात् श्री गोवर्धनधर प्रकट हुए और कहा 'जीवों का ब्रह्मसंबंध करो। ब्रह्मसंबंध से जीव के सभी दोषों की निवृति हो जायेगी और में उन्हें अंगीकार करूंगा।’ श्री वल्लभाचार्य ने उसी समय प्रभु को पवित्रा समर्पित किया और इस तरह इस भगवद्-आज्ञा से जीवों के उद्धार के सहज मार्ग का आरम्भ ब्रजभूमि पर हुआ।

समस्त दैवीय जीवों के कल्याण के हेतु पुष्टि भक्ति मार्ग के आराध्य देव भगवान श्रीनाथजी ब्रजलोक में मथुरा के निकट जतीपुरा ग्राम में श्रीगोवर्धन पर्वत पर प्रकट हुये।

श्री वल्लभाचार्य ने श्रीनाथजी (श्री गोवर्धनधर) के लिए एक छोटा मंदिर सिद्ध करवाया (बनवाया) और प्रभु को पाट बैठाया, विराजमान किया। श्री महाप्रभुजी ने श्रीनाथजी की राग, भोग, श्रृंगारयुक्त भावमयी सेवा (प्रेमपूर्विका पूजा) की प्रणाली निश्चित की। ऐसे पुष्टि भक्ति मार्ग का सबसे पहला और एक मात्र मंदिर की स्थापना ब्रज भूमि पर हुई।

पुष्टिमार्ग के आराध्य श्री गोवर्धनधरण की प्राकट्य स्थली श्री गिरिराजजी को भी पुष्टिमार्ग में भगवद् रूप से पूजनीय और वन्दनीय माना जाता है।

धर्म ग्रन्थ और विद्वानों के अनुसार ब्रज यात्रा का आरम्भ उद्धवजी ने किया था। श्रीमद् भागवत में भी विदुरजी के ब्रज यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीवल्लभाचार्य जी को ब्रज और ब्रज में रहना अत्यन्त प्रिय था। श्रीवल्लभाचार्य जी पूरे ब्रज की यात्रा करना चाहते थे। पर विधर्मियो की पराधीनता के उस युग में सिकन्दर लोधी के राज्य में हिन्दू जनता पर अनेक प्रतिबन्ध थे। स्थानीय अधिकारियों से यात्रा की अनुमति प्रदान न होने पर श्रीवल्लभाचार्य ने अपने दो योग्य एवं विश्वसनीय शिष्यों -वासुदेव छकड़ा और कृष्णदास मेघन को दिल्ली में सुल्तान के पास भेजा। श्रीवल्लभाचार्य के असाधारण अलौकिक प्रभाव के कारण ब्रज यात्रा की राजकीय अनुमति मिल गई तथा अनावश्यक प्रतिबंध हटे। आचार्यश्री के नेतृत्व में ब्रज यात्रा सम्पन्न हुई। ऐसे कलयुग में ब्रज यात्रा का पुन: आरम्भ श्री महाप्रभुजी ने किया।

पुष्टिमार्ग में श्री यमुनाजी को पुष्टिजीव की माँ कहा गया है जो प्रभु श्री कृष्ण की चतुर्थ प्रिया हैं। जिनके केवल स्मरण और जलपान से भगवद् भक्तो के क्लेश नाश कर, सभी मनोरथ पूर्ण करने वाले, समस्त अलौकिक सिद्धियों की दाता श्री यमुनाजी का अधिभौतिक स्वरुप नदी-जलप्रवाह के रूप में ब्रज में बहता है।

श्री महाप्रभुजी ने ब्रज को ही केंद्र बना कर पुष्टि मार्ग का विस्तार किया। पुष्टि मार्ग की सेवा-प्रणाली मे रग रग में श्री कृष्ण की ब्रज लीलाओं के दर्शन होते हैं। पुष्टिमार्गीय सेवा के दो प्रकार है-
१) प्रात: काल से सायंकाल पर्यंत नंदालय में हो रही अष्टयाम सेवा यशोदाजी के वात्सल्य भाव से कही है, जैसी ब्रजांगनाओं ने की थी। इससे जीव का मन निरंतर प्रभु की ब्रज लीला के दर्शन करता है ।और
2) वर्षोत्सव सेवा द्वादश मास के यानि षठऋतु के उत्सव और प्रभु की गोप गोपिओं के साथ की विभिन्न ब्रज लीलाओं का समावेश लिया है। श्री महाप्रभुजी ने सेवा रीत-प्रीत ब्रजजन के जैसी कही है।

पुष्टि मार्ग की प्रभु-सेवा में कई ललित कलाओ का समावेश किया है। (१) चित्रकला का खास स्थान है। जिसमें श्री प्रभु की ब्रज की बाल लिलाओं और स्थलों का सजीव वर्णन मिलाता है। (२) सांझी कला, जिसमें ब्रज संस्कृति की झांकी मिलती। (३)श्री महाप्रभुजी ने प्रभु सेवा में संगीत कला को एक महत्व का साधन माना है। जिसमें मुख्यत: भावानुसार, नवधा भक्ति सहित साहित्य-संगीत- कीर्तन प्रणाली का समावेश है। जिसमें प्रभु की ब्रज लीलाओं को माध्यम बनाकर नाम, लीला और गुण कीर्तन के गान का समावेश प्रभु प्राप्ति हेतु नित्यसेवा, और वर्षोत्सव की सेवा में होता है। ऐसे अनेक कलाओं का समावेश सेवा में ब्रजजनों और ब्रज लीलाओं पर आधारित किया है।

पुष्टि जीव इस सेवा के माध्यम से निरंतर ब्रजाधिपति एवं ब्रज भूमि से जुडा रहता है। श्री महाप्रभुजी ने अपने संप्रदाय में बालकृष्ण की यह गृहसेवा माता यशोदा के वात्सल्य भाव से पुष्टि जीव को करने की आज्ञा की है। जब जीव प्रभु को घर में पधारकर महाप्रभुजी के बताये सिद्धांत और रीत का भाव से पालन करते हुए सेवा करता है, तब फिर वो गृहमंदिर-नंदालय और वैष्णव का घर ही ब्रज बन जाता है। फिर जीव को ब्रज यात्रा की आवश्यकता भी नहीं रह जाती।