श्रीवल्लभ-प्रतिनिधि-"आचार्यवर्य श्रीगोपीनाथ प्रभुचरण


श्री महाप्रभूजी जब अपनी द्वितीय पृथ्वी परिक्रमा के दौरान पंढरपुर पहुचे तब श्री विट्ठलनाथजी प्रभु ने आपश्री को विवाह करने की आज्ञा की और कहा कि–हम पुत्र रूप में आपके यहाँ जन्म लेंगे और भक्तिमार्ग का प्रचार करेंगे। इस भगवदआज्ञा के पालन रूप भूतल पर पुष्टि भक्ति के प्रचार हेतु आपश्री ने पृथ्वी पर अपने वंश का विस्तार किया है।

श्रीमहालक्ष्मीजी से शादी के बाद विक्रमाब्द १५६७ में प्रयाग (इलाहबाद) के निकट अडेल में श्री महाप्रभुजी के ज्येष्ठ पुत्र श्री गोपीनाथजी का प्राकट्य हुआ। उनके जन्म पर सभी को अपार आनंद अनुभव हुआ अतः महाप्रभुजी ने ब्राह्मणों, याचकों, गरीबों को खूब दान-दक्षिणा दी थी।

7 वर्ष की आयु में आपका यज्ञोपवीत संस्कार कर स्वयं महाप्रभुजी ने आपको विद्याभ्यास प्रारंभ कराया। श्री गोपीनाथजी अपनी प्रभुकी सेवा और नामस्मरण में तत्परता से जगप्रसिद्ध हैं, पर साथ में विद्या और व्यवहार में भी अति कुशल थे। आपने अपने पिता श्रीमद्धल्लभाचार्यजी के कुशल निर्देशन एवं देखरेख में प्राचीन परम्परानुसार वेद वेदान्त आदि सकलशास्त्रों का अध्ययन किया तथा साम्प्रदायिक ग्रन्थों विशेष कर अणुभाष्य, सुबोधिनी आदि का अध्ययन आपने अपने पितृचरण श्रीमहाप्रभुजी से प्राप्त किया। बीस साल की आयु से पहले ही आपश्री ने सर्व शास्त्र का अध्यतयन समाप्त कर दिया था।

आपश्री शान्त एवं गम्भीर प्रकृति के विद्वान् थे।‘स्ववंशे स्थापिताशेषस्वमाहात्म्य:’श्री महाप्रभुजी ने अपने वंश में सम्पूर्ण महात्म्य (महानता), ऐश्वर्य आदि का स्थापन किया है। यदि आप अपने अशेष माहात्म्य का स्थापन अपने वंश में नहीं करते तो वे पुष्टि-भक्ति के प्रचार में समर्थ नहीं हो सकते थे। इस लिए श्री आचार्यजी ने अपने सामने ही अपने (सर्व प्रथम वंश) श्री गोपीनाथजी को आचार्य-पद दिया, (और द्वितीय पुत्र श्री विट्ठलनाथजी को, नागजी भट्ट को नाम-निवेदन करा कर सेवक करने की आज्ञा की) और यही अपने वंश में आपके द्वारा अशेष माहात्म्य का स्थापना है।‘

आत्मा वै जायते पुत्र:’........इस प्रमाण को ही श्री आचार्यजी ने सम्पूर्ण रूप से अपने वंश में चरितार्थ किया। आपश्री ने अपनी आत्मा को ही अपने पुत्र-रूप में प्रादुर्भूत कर अपना अशेष महात्म्य पुत्र में स्थापित किया है।

श्री गोपीनाथजी ने बीस साल की कम आयु में ही सम्प्रदाय की सम्पूर्ण जिम्मेवारी संभाली थी।श्री महाप्रभुजी ने पुष्टिभक्तिमार्ग के तत्व, सिद्धांत और फल पक्षों को समझाने वाले कई ग्रंथो की रचना की थी। अपितु पुष्टिमार्गीय वैष्णव को लौकिक-वैदिक कर्तव्यो को निभाते हुए अपने दैनिक जीवन को कैसे सेवा-स्मरणमय बनाये, खास उसके मार्गदर्शन करने वाला कोई ग्रन्थ श्री महाप्रभुजी ने नहीं रचा था।
इस अति महत्त्वपूर्ण कार्य को श्री गोपीनाथजी ने ‘साधन दीपिका’ नाम के सुंदर ग्रन्थ की रचना के द्वारा पूर्ण किया। आपश्री ने इस ग्रन्थ में श्रीमहाप्रभुजी के ग्रंथो के अनेको दृष्टांत देकर अपने सिद्धांत की प्रमाणिकता और श्रीमहाप्रभुजी सम्मत होने की पुष्टि की है। इस ग्रन्थ में संप्रदाय की सेवा-प्रणाली और सिद्धान्तों की चर्चा है और सेवा द्वारा प्रभु-प्राप्ति, मुक्ति, भक्ति और भगवद् दर्शन किस प्रकार प्राप्त हो इसका सुन्दर सरल निरूपण किया गया है।

साधन दीपिका में श्री गोपिनाथजी समजते हैं... प्रभु की सेवा पुष्टिमार्गीय वैष्णव का एक मात्र धर्म है। जैसे माता अपने पुत्र के लालन-पालन से अपना स्नेहभाव दर्शित करती है, जैसे एक दास जीवनभर अपने राजा की सेवा से अपना आदरपूर्ण स्नेहभाव दर्शाता है, ठीक वैसे ही हमें प्रभु के लिए हमारे हृदय में रहे स्नेहभाव को प्रभुकी सेवा द्वारा दिखाते हैं।प्रभु की सेवा हमें किसी और के सामने कर के उसको प्रदर्शन न बना कर उसको गुप्त रीत से करनी है। तब ही ये भक्ति बनती है। जैसे माता अपने बालक को अपने आँचल में छुपाकर स्तनपान कराती है ठीक वैसे ही वैष्णव को अपने सेव्य स्वरुप को बाह्य लौकिक आवरण से छुपाकर अपने घर में सेवा करनी है। तब ही हमारा मन प्रभुमय हो सकता है और एसा न करने से मन में रहा भक्ति भाव भी चला जाता है। शास्त्रों में भी ये कहा गया है....धर्म: क्षरति किर्तनात्अर्थात: स्वयं के धर्म को अगर प्रदर्शित किया जाय, तो उसका फल नष्ट हो जाता है।श्री महाप्रभुजी के इस सिद्धांत का पालन कैसे हो, इसके लिए श्री गोपीनाथजी ने ‘साधनदीपिका’ ग्रन्थ की रचना की है।

श्री गोपीनाथजी ने जिस उपदेशो का निरूपण ‘साधनदीपिका’ ग्रथ में किया है जब हम उन सभी उपदेशो का पालन अपने जीवन में करते हैं तब सही अर्थ में पुष्टिमार्गीय वैष्णव बन सकते हैं।जैसे कि...
.1.पूर्णपुरुषोत्तम श्री कृष्ण की सदैव सेवा करनी।
2.क्षण भर का श्रीकृष्ण -स्मरण विहीन जीवन हमें प्रभु से दूर कर देता है।
३.सदगुर की कृपा, सत्संग,और श्रीमद् भागवत के पठन के बिना भक्ति संभव नहीं है।४.व्यक्ति-वस्तु के दोषों का चितन, इन्द्रियसंयम एवं प्राप्त वस्तु में संतोष, यह तीन गुण वैराग्य प्राप्त करने के उपाय हैं।
५. हम प्रभु से विमुख न हो जाय इस बात की सावधानी सदैव रखनी है।
६. सद्गुरु में आदर रखना।
7. अवैष्णव का कभी संग नहीं करना।
८. तत्वविचार, शुद्धि, श्रद्धा, सत्य, दया, दान एवं इन्द्रियसंयम सहित प्रभु सेवा-स्मरण किया जाय तो भक्ति जल्दी प्राप्त होती है।
९ अति आत्मीय वैष्णव को ही सेव्य स्वरुप का दर्शन करना।
१० प्रभु को समर्पित प्रसादी से ही सभी लौकिक-वैदिक कार्य करने हैं.......तदुपरांत आपश्री ने सेवा श्लोका,श्रीवल्लभ स्वरुप चिंतन इत्यादि अनेक ग्रन्थ रचे हैं जो आज भी भक्ति मार्गीय वैष्णव का मार्ग प्रशस्त एवं सरल कर रहे हैं।.

श्री गोपिनाथजी अपने सिद्धांत पक्ष और व्यवहार पक्ष में आचार्य पद पर होने के कारण मर्यादा भक्ति और पुष्टि भक्ति, दोनों ही पक्ष का अधिकार के हिसाब से भक्ताें को उपदेश करते थे। श्रीमदाआचार्यचरण के अनुसंधान में श्री वल्लभ ने कहा है कि आप में उभयपक्षता विद्धमान थी। मर्यादामार्गोपदेष्टा और पुष्टिमार्गोपदेष्टा, ये उभयरूपता आचार्यात्व में अपेक्षित होता है। क्योंकि आप के पास जो शिष्यत्व प्राप्त करने आते हैं वो सभी पुष्टि भक्ति के अधिकारी नहीं होते। उत्तम, माध्यम और कनिष्ठ मिश्र सभी प्रकार के होते हैं।
इस लिये श्री गोपिनाथजी ने विष्णुस्वामी के शिष्य परम्परा एवं विरक्त परम्परा का और पुष्टिभक्ति मार्ग की श्री वल्लभ की परम्परा का,भवदसेवा का,और प्रेमभक्तिमय रूप में व्यवहार पक्ष, दोनों का उपदेश किया।आपने श्रीवल्लभ के ग्रंथो को ही अपने ग्रन्थ और उपदेश को लोगो तक पहुँचाया, इतना ही नहीं किंतु एक नूतन सरल सहज दुःख रहित पद्धति एवं आनंद युक्त व्यवस्था का निर्माण और भारतीय धर्म दर्शन संस्कृति एवं कृष्ण प्रेम का प्रचार प्रसार किया।

ऐसे अत्यंत प्रेरक, उपकारक, प्रतिभाशाली, तपोमय, भक्तिमय श्रीवल्लभ-प्रतिनिधि-"आचार्यवर्य श्रीगोपीनाथ प्रभुचरण को वंदन