पुष्टिमार्ग में वार्ता साहित्य का महत्व:


हिन्दी साहित्य की गद्य परम्परा में वार्ता साहित्य का विशेष स्थान है। वार्ताऐं आम तौर पर पात्र के आदर्श, संस्कार, सभ्यता, सदाचार तथा सामाजिक रीती रिवाज, और धार्मिक भावनाओ को दर्शाती हैं। धार्मिक सिद्धांत और मूल्यों को दर्शाती हुई कथाओ को सामान्य जन को सरलता से समझाने हेतु धर्म प्रचारक वार्ता साहित्य का सहारा लेते हैं।

पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय में वार्ता साहित्य का अति महत्व है। मार्ग के भगवदीय अनुयायियों से सम्बंधित विभिन्न घटनाओ का संकलन व्रज भाषा में श्री गुसांईंजी के समय में हुआ उसको 'वैष्णव की वार्ता’ कहते हैं। पुष्टिमार्ग संप्रदाय में वार्ता साहित्य का आरम्भ श्री महाप्रभुजी के द्वारा मौखिक रूप से हुआ था। इन वार्ताओ की उत्त्पत्ति का मुख्य हेतु संप्रदाय के सिद्धांत को भावनाओ को द्रष्टान्त के साथ सरलता से समझाना है। जिसका विस्तार बाद में श्री दमोदर दास हरसानी और श्री गोकुलनाथजी द्वारा हुआ। जब श्री महाप्रभुजी ने सन्यास लेने का निर्णय लिया उस समय श्री गोपीनाथजी और श्री विट्ठलनाथजी कम आयु के थे। उस कारण श्री महाप्रभुजी ने मार्ग के सपूर्ण सिद्धांत और वार्ताओ को अपने अनन्य सेवक दामोदरदास हरसानीजी के हृदय में स्थापित किया। जिससे समय आने पर श्री गोपीनाथजी और श्री विट्ठलनाथजी को प्राप्त हो सके। ऐसे ही वैष्णव वार्ता के संकलन और निर्माण का प्रारम्भ हुआ।

"चौरासी वैष्णन की वार्ता” और “दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता” इन दो भागो में बटा हुआ यह साहित्य व्रजभाषा साहित्य के पुष्टिमार्गीय महाकवियो के जीवन वृतांत प्रकट करने के कारण तो महत्वपूर्ण है ही, किन्तु व्रजभाषा गद्य के प्राचीन साहित्य के रूप में हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान रखता है। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में श्री महाप्रभुजी के शिष्यों की वार्ताओ का संकलन है। जिसमे अंत की चार वार्ता अष्टछाप के चार वैष्णव #८१- सूरदासजी ,#८२ परमानंददास ,# ८३- कुम्भनदास और #८४ कृष्णदास जी की है।
और 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में श्री विट्ठलनाथजी के शिष्यों की वार्ताओ का संकलन किया है। जिसमे आरंभिक चार कथाए अष्टछाप के अन्य चार वैष्णव #1 श्री गोविंद स्वामी,#2- श्री छितस्वामी,#३- श्री चतुर्भुज स्वामी और #4 श्री नंददास स्वामी जी की है।
इस प्रकार पुष्टिमार्ग में और भी कई वार्ता ग्रन्थ की रचनाइ उपलब्ध है, जैसे कि ३) श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य की प्राकट्य वार्ता -जिसमे श्री महाप्रभुजी का जीवन वर्णन क्रमबद्ध किया गया है। ४)भाव सिन्धु की वार्ता..इस ग्रन्थ में ८४-२५२ वैष्णव में से कई वैष्णवों का जीवन चरित्र प्रसंग का उल्लेख हैे जो मार्ग के सिद्धांतों पर आधारित है।
५) श्रीनाथजी वार्ता- इस ग्रन्थ में श्रीनाथजी के प्राकट्य से लेकर मेवाड़ पधारने तक की प्रसंग वार्ता है, ६) बैठक चरित्र, घरू वार्ता, निज वार्ता-इन ग्रंथो में श्री महाप्रभुजी और श्री गुसाईंजी के कुछ विशेष जीवन प्रसंग वर्णित है, 7)अष्टसखान की वार्ता...इसमे ८४-२५२ में से अष्टछाप वैष्णवों के जीवन चरित्र को एकत्रित कर उनका अलग वर्णन उल्लेखित किया गया है। इन साहित्य में कही गयी वार्ताओ से उस समय की सांप्रदायिक,सामाजिक और राजनैतिक स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ने के कारण इनका ऐतिहासिक महत्त्व भी अधिक है।
इसको
१) सांप्रदायिक द्रष्टि से देखे तो इस वार्ताओं में पुष्टिमार्गीय वैष्णवों की भक्ति भावना, जीवन में पुष्टि सिद्धांतो के आचरण की शुद्धता और भगवद आश्रय दृढ़ता को देख सकते है। इसको लिखने का आचार्यो का आशय ही यह है कि साधारण वैष्णव मे सांप्रदायिक सिद्धांतो का महत्व और समझ सरलता से पहुच सके। वार्ता में सद्गुरु का महत्व, प्रभु का स्वरूप, सम्पूर्ण समर्पण की भावना..इत्यादि से स़पूर्ण मार्ग का ज्ञान प्राप्त होता है।

२) सामाजिक द्रष्टि से महत्व: इस वार्ताओं में तत्कालीन समाज सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक और भावनात्मक एकता सहित लोक जीवन का दर्शन मिलता है। भक्ति मार्ग के सूत्र में ऊँच-नीच, जाति भेदभाव को न देखते हुए श्री महाप्रभुजी ने हिन्दू-मुस्लिम, स्त्री-पुरुष, और सभी वर्णों के जीव को स्वीकारा है, जो प्रभु को सर्व समर्पित करने के लिए निष्ठ हो।

३) ऐतिहासिक द्रष्टि : वार्ताओं का धार्मिक,सामाजिक और राजनैतिक ज्ञान प्राप्त होता है इसलिये ऐतिहासिक महत्व की हैं। जो इन वार्ताओं के अध्ययन करने से पता चलता है कि इनमें वर्णित अनेक घटनाएँ सत्य हैं। विशेषकर तत्कालीन सेवको और विद्वानों के सन्दर्भ, घटनाये सत्य और ऐतिहासिक महत्त्व की हैं।

४) साहित्य की द्रष्टि से: वार्ताओं का साहित्यिक महत्व सुविदित है। अतिप्राचीन ब्रजभाषा गद्य के उत्कृष्ट नमूने के रूप में हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके स्थान अमर है। इन वर्ताओ में व्रज भाषा का सम्पूर्ण और आरंभिक सुव्यवस्थित गद्यात्मक का रुप प्रकट होता है। तैलुगू-भाषी वल्लाभाचार्य ने केवल अपने आराध्य की भाषा होने के कारण तथा कुछ अन्य कारणों से ब्रजभाषा को इस सम्प्रदाय में इस प्रकार अपना लिया कि वह आचार्यों की और वैष्णवों की मातृभाषा सी बन गई।
पुष्टिमार्ग में वार्ताऐ तीन प्रकार से प्राप्त होती हैं। 1) प्रासांगिक,2) संख्यात्मक और ३) भावात्मक।
श्री महाप्रभुजी के समय में वार्ताए प्रासांगिक रूप तक सिमित रही, इसको श्री गोकुलनाथजी ने संख्यात्मक और रचनात्मक रूप दिया और आगे वार्ताओ को भावनात्मक रूप श्री हरिरायजी ने दिया।

पुष्टि भक्ति संप्रदाय भावना प्रधान मार्ग है, जिसमें अपने आराध्य के प्रति सच्ची भावना से सर्व समर्पित भाव ही प्रधान है। श्री हरिरायजी ने मार्ग के वार्ता साहित्य में रहे सिद्धांतो के पीछे की भावना को सामान्य जन तक सरलता से पहुचाने के हेतु से ही ८४-२५२ वैष्णवन की वार्ता के भाव-भावना का सर्जन किया। श्री हरिरायजी ने ८४-२५२ वैष्णव की वार्ता पर वैष्णव के तीन जन्म की भावना लिखी है। पहला जन्म इस मार्ग में आने से पहले का अधिभौतिक, दूसरा मार्ग में प्रवेश के बाद का अध्यात्मिक, और तीसरा मूल भूत आत्मा रूप का अधिदैविक।

हमारे सभी मुख्यग्रन्थ में दर्शित बातों से और हमारे आचार्यो की वचनामृत से और आज्ञा से बार बार ये समझाया गया है कि प्रभु के अनन्य निर्गुण भक्तो ने जिस रीत प्रीत से प्रभु को प्रसन्न किया हैे, उसका केवल अनुकरण से भक्ति करे, उनके भजन- गुणगान से हमारा कल्याण हो सकता है। प्रभु को भी उनसे ज्यादा उनके भक्त की भक्ति करने वाले जीव अति प्रिय हैं। हमारे आचार्यो ने इसी बात को ध्यान में रख कर इन वार्ता साहित्यों का निर्माण किया है और आज्ञा भी है कि इस वार्ता सहित्य को हमारे दैनिक सत्संग का मूल विषय बनाये और प्रभु भक्ति प्राप्त करने के अधिकारी बने।

इस बात का महत्व समझते हुए पुष्टि संप्रदाय के आचार्य और गुरुजन कथा के साथ साथ अपने अंन्तरंग अनुययियो के साथ वार्ता भी करते थे और आज भी करते हैं वो कथाए भगवदीय के जीवन चरित्र पर आधारित होती हैं जो आचार्यो के मत अनुसार ये वार्ताऐं श्रीमद भागवदजी और सुबोधिनी के फलरूप है।